पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२३०

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अधिकमास् गियन्कोस "मासका दूसरा पच होत है और वाले महिनेका पहला पक्ष होता । इस रितिसे उस समय दोनो पुरिगमांत महिनोँमें स्ंकमरग होने के काररग उनमेंका कोई भि य्स्तुत अधिक मास नही ओ सकता । अमांत मानके अनुसार मास संज्ञा और अधिक मास दोनोंकों पुरिग्मांत मानपर लादनेकें काररग अधिक मासका नामकररग करनेमें भी बहुत होता है। मान लीजिये कि अमांत मानके अनुसार वैशाख अधिक मास आता है। उसी समय पुरिग्मांत मानके अनुसार वैशाख महीनेका कृष्णपक्ष अथार्त प्रथम पन्द्रह दिन गुजर ही चुके होते है। अमांत नाम वैशाख रखा जाय तो शुद वैशाख महीनेका कृष्णपक्ष पहले,उसके पछात अधिक वैशाख और तब शुध वैशाखका कृष्णपक्ष-इस अव्चच्स्थाको दुर करनेके लिये ऐसे मोंकोपर पहले और दुसरे पनोच्को मिलाकर प्रथम वैशाख और तिसरे तथा पच्चको मिलाकर दितीया वैशाखका मानते और लिखते हैं।

 अधिकमास माहात्म-वुहन्नारदीय पुरारग और 

पुरुशथम मास महत्वका और मलमास महात्म्यमें व्तियन व्राहारगोकें अनुकूल है। इनमे बतलाया गया है कि अधिकमासमें किन किन पालन करना चाहिये कौन कौनसे दान देने चाहिये, किस कैसी फल प्राति होता है, इत्त्यदि इत्त्यदि। इनमें अधिक मास महात्म्य क्ष्य्र्ग करनेकी फल क्षुति भी समिम्लित है। मलमास महात्म्यमें तो व्रतों और दानोंपर अधिक जोर दिया गया है। वुहन्नारदीय पुरारगमे पुर्शतम महात्म्यमें क्या बतलाया है इस दिखानेके लिये हम स्ंदेपमे थोडासा वरगर्न देते है ।

  पहले अध्यायमें वतलाया है कि इस महात्म्य

को पहले किसने किससे कहा था और आगे वह किस परंपरा से कहा जाता था। इस अध्याय का नाम शुकागमन्न है । आगे चलकर दुसरे अध्यायमे पुर्शोथम मासके सम्वन्धमें वि और नारदजी का संबाद दिया है। अधिक मास वतादिकके लिये आयोग्य सम्भत जानेके कारगर अपनो न्यूनता को पूर्ग कराने की भावना से विप्र्गु भगवान के पास प्राथना करने जाता है-यही तीसरे अध्याय में है। चॉथे अध्यायमें

(अ) २०७ अधिक मास दारा की हुई विध्र्गु भगवान की प्राथना दी है। अध्यायमें विसगौ भगवान का अधिक मासके साथ गोलोकमें जानेका व्रर्ग्न और अधिक मास के लिये की प्राथना है। छ्ते अध्यायमें श्रीकृप्र्ग दारा अधिक मासको वर दानग्नासिका वरगन है। अध्याय ७ से १२ तक का वरगन यों है श्रीकृप्र्ग पांडवोंको उनकी विपति का कारगर वतलाते हुए कहते है कि द्रोपदि पिछ्ले जनम्मे मेधावी नामक ब्राहारग की लड्की थी। मांवापक मरने पर अनाथ हो गयी। ऐसो अवस्थामे उसे दुवासा ऋषिन् दर्सन हुआ । दुवार्सा ऋसिने उसे पुरुसोत्म मासका महात्म वतलाया । द्रोपदी के यह पूछ्नेपर कि और महिनों की अपेता पुरुशत्म मासको क्यो इतना महत्व दिया जाय, ऋषि कोधित होगए । उन्होंने उसे स्र्प तो नहीं दिया पर यह कहा कि जिस अवस्थमें तूने पुरुशत्म मासका अनादर किया है उस अवस्थमें तुभ्ते आगे चलकर दुख भोगना पडेगा । इसपर द्रोपदिने शिवजी को आराधना आरंभ की। शंकर प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा । वार मांगते समय द्रोपदिने 'पति' शब्द पाच बर उचाररग कर पति देने की प्रथनाकी । इसलिये भगवान शकर ने वर दिया कि अगले जन्ममे वह यज़कुंड्से द्रोपदिके रुपमे हुई और पांडवोंकी पति हुई। पुर्शितम मासका अनादर करने के कररग उसे दुश्शासन दारा पीडा और वनवास प्रात्त हुआ । (अ १३ से १६) यहा से दधवन्वा नामक राजाकी कथा का आरम्म होता है। एकवार वह शिकार करने गया। जंगलमें किसी तोते के मुँ हसे एक श्लोक सुनकर वह चिंताशील हुआ। इसी मोके पर चाल्मीकि मुनि वहां आकर उसे उसकी चिंताका काररग समभक्ते हुए उसके पूवजन्मे द्रविड देशमें रहते थे । तुम्हारा नाम सुदेव था। तुमने सन्तान के लिये तप आरम्म किया। यधपि तुम्हारे भाग्यमें पुन्न नहीं था, परन्तु गरुड की प्राथना पर विस्र्गु भागवान ने एक पुत्र दिया । देवल ऋषिने तुम्हे वतलाया कि बारहवें वर्श यह लड्का डूबकर मर जायगा । तुम्हारी रत्री विलाप करने लगी। तब थी हरिने उस बचेको जिला दिया और उसे दीघायु दो। श्रीहरीने भी तुम्हे (सुदेव को) पुर्व व्र्तांत वतलाया। पुराने ज़माने में धनु नामके