पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२३८

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किया जाता है । श्रनन्त शेषशायी नारायुएका श्रगम्यरूप् है श्रौर् इसको कल्पना भी सर्परूपम्ं । दर्शाई जाती है । श्रनन्त पुजनकै लिये भगवान् की प्रतिमा दर्भकी बनाई जाती है । नेवेद्यके लिये भी । २४ प्रकार के पकात्र् होने चाहिये । भाद्र सुदी चतु- र्दशीको कुलके बड़ेको पवित्र होकर उपवास करना चाहिये श्रौर् सायंकालको सपत्नीक् श्रनन्तपूजा करके भोजन करना चाहिये । कहीं कहीं इष्ट मित्रों को भी निमन्त्रित् करनेकी प्रथा है । उपरोक्त दर्भ की प्रतिमा साथ एक उत्तम रेशमी डीरां भी रखकर फूजाकी जाती है । पूजाके पश्रात् यहु डोरा हाथमें बाँध लिया जाता है । कुछ लोग् तो साल भर तक इसे बांधे रहते हैं । लोगोंका विचार है कि श्रनन्त पूंजा' तशा व्रत श्रत्यन्त कल्यारकारी है श्रौर् नष्ट ऐश्वर्य तथा गौरवको पुन: प्रास् करने का श्रच्छा साधन है । जिस समय बारह वर्षके बन-वांसका श्रसीम कष्ट पाएड्व लोग उठा रहे थे, उस समय उन्होंने श्रीकृषएसे इससे मुक्तिका उपाय पूछा । श्रीकृषएने पाएडवोंसे श्रनन्तव्रत क्ररंनेको कहा, श्रौर श्रनेक प्राचीन कथाश्रों द्वारा इस व्रतकी महिमा तथा प्रभावका वर्णन किया ।

 एक कथा इस प्रकार् है कि सृतयुगमें सुमन्तु नामक एक वसिष्ट्गोत्रोंत्पत्र् व्राहाएने दीक्षा

नामक भ्रगुर् षिकी कन्यासे विवाह किया था । उसको सुशीला नामक एक उदार प्रकृतिवाली सर्वगुए सम्पत्रा कन्या उत्पन्न हुई । कुछ कालके पश्रात् 'दीद्तन्त् देहान्त हो गया श्रौर् सुमन्तुने एक कर्कशा स्त्रीसे विवाह कर लिया । एक समय कौरिडएय नामक एक ऋषि सुमन्तके घ्र्र श्राये हुए थें| उनको ह्र्र प्रकारसे श्रपनी कन्याके उपयुक्त देखकर तथा श्रपनी कन्याके उपयुक्त देखकर तथा श्रपनी कन्यासे सम्मति लेकर उसका पारिएग्रहए ऋषिके साथ करा दिया| कुछ समय तक ये दोनों वर-बधु सुमन्तुके घ्र्र पर ही रहे| सुमन्तु एक श्रोर तो श्रपनी कर्क्शा स्त्री के व्यवहारसे दु:खी रहते थे दूसरी श्रोर श्रपनी कन्या श्रोर जामाताके वियोगके विचारसे श्रघीर हो उठते थे| श्रन्तमें वरबधुकी यात्राको २३,२४ दिन रह गये| जब यात्राका दिन श्राया तो सुमन्तु की स्त्रीने भोजन तक न बनाया श्रौर ये दोनों सुमन्तुसे श्राज्ञा लेकर रथपर रवाना हो गये | मार्गमें कुछ सौ भाग्यवती स्त्रियां स्वच्छ वस्त्रालड्कार से सुशोभित होकर एक नदीके तीरपर श्रनन्त पूजाकर रही थीं | उनको देखकर सुशीला भी उन में सम्मिलित हो गई| इधर कौरिएडएय ऋषि भी नित्य्र क्रिया समाव्तकर चुके थे| श्रत: रथपर वैठ कर प्रस्थान किया | श्रन्तमें श्रमरावती नगरीमें पहुचते ही सुशीलाके भक्तिपूर्वक श्रनन्त पूजामें सम्मिलित भक्तिपूर्वक श्रनन्त पूजामैं सम्मिलित होनेसे वहाँके नागरिकों द्वारा इनका श्रच्छा श्रादर सत्कार " हुश्रा" श्रौर् श्रन्तमैं दृन्हें श्रपना गजा बनाया । इस भाति श्रनन्तत्रत् श्रौर् पूजाका प्रभाव देख पड़ा ।

 एक दिन संयोगसे सुशीलाके हाथमें बंधे हुए श्रनन्तपर कौण्डिएंयकी दृष्टि पडी | श्रत: उन्होंने

सुशोलासे उसके विषयमैं पूछा । सुशीलाके कथन पर सहसा उनको त्रिश्र्वास न हुश्रा श्रौर् उसको नीच श्रेणीका तन्त्र मन्त्र समझकर विच्व्ंसकर डाला श्रौर् उस डोरेको श्रग्रिमें जला दिया । सुशोलाको इससे श्रसीम कष्ट तथा दु:ख हुश्रा श्रौर उस जले हुए डोरेका श्रग्रिसे निकालकर शीघ्र ही फिरसे पूजन् किया ।

 किन्तु कौणिडएयके इस निरादरसे उनकोंशीघ्र हो घोर दरिद्रता भोगनी पडी । सम्पूर्ण राजपाट

हाथसे निकल गया । श्रब उन्हें श्रपने कृत्यपर घोर पश्र्वात्ताप होने लगा । श्रन्तमें ऋषिने लक्षमी नारायएके दर्शन होंनेतक व्रत क्ररनेका दृढ़ निश्र्वय कर लिया । इस प्रकार पतिपत्निने श्र्नन्तत्रत फिर से करनेका स्ंकल्प् किया | उस व्रतकों करनेपर उन्हें श्रपना पूर्व वैभव फिरसे प्राप्त हुश्रा।

 श्रनन्त-- इस् नामके श्रनेक प्राचीन लेखक हो गये है । कृछके ग्रन्थ तो बडे उत्तम है ।
 (१)कात्यायनश्रौत सूत्रके टीकाकार तथा प्रतिज्ञा परिशिष्ट भाष्यके लेखक । इनके ग्रन्थसे

देवभद्र् तथा याज्ञिक् देवने श्रनेक् उदाहरण लिये हैं | (श्रॉफ्रवेट्-केंट-केंट पीटरसन- रिपोर्ट ४)

 (२) हरीकें पुत्र! इनका श्रनन्त सुधारस नामक पञ्चाड्गरिएत ग्रन्थ विख्यात है । यह लगभग शक सं० १४४७ मैं हुए होगें । इनका ग्रन्थ सूर्यसिद्भान्त पर् निर्भर है । यद्यपि यह सन्देदृका विषय है किन्तु कृछका मत है कि मुहुर्त मार्तएड्के रचयिता नारायए इन्होंके पुत्र थे । ( श्ं० वा० दीक्षित--भारतीय ज्योतिष शास्त्र )
 (३)शक सम्वत् १२७६ में महादेव द्वारा लिखित 'कामधेनु' नामक ग्रन्थके टीकाकार | इन्हीं श्रनन्तका लिखा हुश्रा 'जात्पद्धति' नामक ग्रन्थ है । इनका ग्रन्थ् गोत्र था, श्रौर् निवास स्थान

था विदर्भ्ह-देशका धर्मपुरी नगर । कुछ हिय काशीमें भी रहे थे । इनके पिता चिन्ताएनहब्