पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/३२५

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अफगानिस्तान ज्ञानकोश (अ) ३०१ अफगानिस्तान में एकत्रित होकर सर जॉन कीन (Sir John अंग्रेजी फौज जनरल सेलके आधीनतामें बड़ी Keane ) के सेनापतित्वमें बोलनके दरसे आगे बीरतासे डटी रही। बढ़ी। मार्गमें कठिनाई तो अनेक पड़ी किन्तु इन सबका प्रतिकार करनेके लिये भारतमें सन्मुख कोई भी न आया। कन्दहारका शासक बड़ी सावधानीले तय्यारी हो रही थी। अन्तमें कोहनदिल खाँ ईरान भाग गया। १८३६ ई. के | १८४२ ई० १६वीं अप्रेलको खैबर दर्रेसे होते हुए अप्रैल मासमें वह नगर जीत लिया गया और जनरल पोलक जलालाबाद पहुँचे । २०वीं शाहशुजाको राजगद्दी दो गई। उसी साल अगस्त तक वहीं डेरा डाले रहे। तदन्तर सेना २१ जुलाई को ग़ज़नी पर हमला करके वह भी | सहित आगे बढ़ते बढ़ते १५वीं सितम्बरको कावुल जीत लिया गया। दोस्त मुहम्मदकी सेना तितिर पहुँचे। इसी समय गजनीको विजय करके नॉट बितिर हो गई और वह निराश होकर हिन्दु कुश साहब उनसे कावुलमें आ मिले। अंग्रेज वन्दो पर्वतकी ओर भाग गया। कीन थोड़ी बहुत | मुक्त किये गए। अब अफगानिस्तान एक बार सेना शूजाकी सहायताके लिये छोड़कर भारत फिर अंग्रेजोंके हाथ आ चुका था। लौट आया। आगामी दो वर्ष तक शाह शूजा अंग्रेजी सेनाके जाते ही शाहशूजाकी हत्या काबुल और कन्दहार पर शासन करता रहा। कर डाली गयी। अतः एक बार फिर कावुल अब ाक्ससकी तरेटीमें सैघन तक और सेसि- पर दोस्तमुहम्मदका शासन हुआ। अकबरखाँ स्तानके मैदानमें मुल्लाखाँ तक अंग्रेजोंका कब्जा वजीर बनाया गया, किन्तु १८४८ ई० में ही हो गया था। अन्तमें १८४० ई० के नवम्बरमें उसकी मृत्यु हो गई। दोस्तमुहम्मद १८६३ ई० दोस्त मुहम्मद भी अंग्रेजोकी शरणमें आ गया तक राज्य करता रहा। अन्तमें उसकी भी और वह भारतमें भेज दिया गया। यहाँ इसके जदया गया। यहा इसक मृत्यु हो गई। साथ बड़ा अच्छा सलूक किया गया। इन सब दोस्तमुहम्मदने अपने शासनकाल में अनेक परिवर्तनोंसे देशमें अशान्तिके बीज पड़ चुके थे। प्रान्त जीते । जिस समय भारतमें शेरसिंह किन्तु उस ओर शासकोंका समुचित ध्यान नहीं | अंग्रेजोसे युद्ध कर रहा था उस समय (२१ था। फलतः १८४१ ई. की दूसरी नवम्बर फरवरी १८४६ ई०) यह अटक जीतकर गुजरात को काबुल में भयंकर विद्रोहकी अग्नि भड़क उठी। | में उपस्थित था। सर बाल्टर रेले गिलवर्टने वर्नस तथा अन्य अंग्रेज अफसर मार डाले गये। अफगानोका बहुत तत्परतासे पीछा किया। दोस्त उन लोगोंकी छावनी नाश कर दी गयी, रसद मुहम्मदकी जान बड़ो कठिनाईसे वची। वह अथवा समाचार आने जानेका कोई उपाय नहीं | एक अत्यन्त तीव्रगामी घोड़े पर सवार होकर छोड़ा। इससे इन लोगोंकी अवस्था अत्यन्त भाग निकला। तदन्तर १६५०ई० में अफगानों शोचनीय हो गई। उसी सालके २३ दिसम्बर ने वल्ख पर फिरसे विजय पाई। अब अंग्रेजोसे को दोस्तमुहम्मदके पुत्र तथा अफगान सेनाके | इनसे फिरसे मित्रताका नाता जोड़ा गया और अधिपति अकबरखाँ ने एक सभा समझोतेके १८५५ ई० में पेशावरमें एक सन्धिपत्र लिखा गया। लिये की जिसमें उसने सर डब्लू मैकनेघटनको इसी साल नवम्बर मासमें इसके भाई कोहनदिल अपने हाथोंसे मार डाला। अन्तमें ६ जनवरी खाँ का देहान्त हो गया था। अब कन्दहार १८४२ ई० में एक समझौतेके आधार पर अंग्रेजी प्रान्त भी इसीके हाथ आ गया। हेरात पर सेना अफगानिस्तानके बाहर होने लगी। उस ईरानियोंने कजा कर लिया था। अतः १८६३ ई० समय बड़ी तीव्र सर्दी पड़ रही थी, मार्ग भी में उसने उस पर आक्रमण किया और दस मास बीहड़ था। ऊपरसे अंग्रेजी सेना पर वहाँ के तक घेरा डाले पड़ा रहा। अन्तमें इसको विजय निवासियोंका आक्रमण होता था जिससे इन हुई, किन्तु इसके तेरह दिन बाद ही वह भी लोगोंको बहुत हानि होती थी। सब कठिनाइयों परलोक गामी हुश्रा। को सहन करते हुये इनसे बचे हुए थोड़ेसे | दोस्त मुदम्मदकी मृत्युके पश्चात् इसका पुत्र अंग्रेज जलालाबाद पहुँचे। जो सेना गजनी में शेरअलीखाँ गद्दी पर बैठा । शेरअली खाँको थी वह भी आत्म समर्पण करने के लिये १० दिस-अपने भाइयो तथा भतीजोसे बराबर लडते रहना म्बरको वाध्य की गई। इतना सब होने पर भी पड़ा। १८६७ ई० में तो इसकी यह दशा हो गई जनरल नॉट कन्दहार पर अधिकार किये ही थी कि केवल वल्ख और हेरात पर ही इसका रहे । इधर काबुलसे आकर जलालाबाद में शासन रह गया था। बाकी सम्पूर्ण राज्य इसके