पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/४९

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इस ग्रंथ में अग्नि-उत्पति की कथा यो है कि जेहोवाने आदम और ईव (मानव जाति के मूल स्त्रि-पुरुष ) से आगन्युपत्ति की प्द्युति का विवरण कहा। जिस समय आदम पहले अन्ध्कार में फँस गया उस समय ईश्वर के पवित्र मूर्ति ने उसे अग्नि उत्पत्ति करने के लिए दो ईट दी। इस् प्रकार हिब्रू ग्रंथ के अनुसार अग्नि की उत्पत्ति ईशवर की दी हुई ईंटों से हुई है।

ज़ोरो-श्रास्ट्रियन धमॅ की रात्रि पूजा-इरानी और भारतीय धर्मकी अग्नि पूजा में मुख्य दो भेद है। (१) ईरानी धर्म के अनुसार अग्नि में मृतक का संस्कार करना अनुचित समझा जाता है, किन्तु भारतीय धर्म में ऐसा नहीं है (२) जितना भारतीय धर्म में अग्नि के काल्पनिक स्वरूप को महत्व दिया गया है उसके मुकाबले में ईरानी 'श्रातर'का स्वरूप बहुत ही श्रपूरी है। कुछ लोगों का कथन है कि ईरानी धर्म अग्नि को देवता का पद बिल्कुल नहीं दिया गया है। भारतीयो के विषय में यह ध्यान में रख्नने योग्य बात है कि अग्नि पूजा का लोप होते होते शव वह एक विशिष्ट ब्रह्मिण वर्गके ही हाथ में है। परन्तु ज़ारथूस्त्र सम्प्रदाय का प्रत्येक पारसी प्राचीन प्द्युति के अनुसार अगिन्पूजा करता है।
श्रातर (अग्नि) दिव्य प्रकाश का पार्थव स्वरूप है। अग्नि "अहुर्मरज़्द " का पुत्र था। उससे ज़र्तुश्त्र का ज्नम हुआ। अग्नि के पांच प्रकर है।  आर्हिमन ने अन्ध्कार और धुआँ  को अग्नि का रूप माना जाता है। 
आतरने आहुर को "आग्र्मेन्यु"से युद्ध करते समय सहायता दी। इसी प्रकार की अनेक कथाएं आवेस्ता और पेल्ह्वी ग्रंथ में दी हुई है। अग्नि के संरक्षक को इस पंथमें धर्म-गुरु मानते है। ये संरक्षक अग्नि को कभी झुकने नहीं देते। अग्नि में मृतको को जलाना, गोबर इत्यादी गन्दे पदार्थ डालना, इत्यादी कृत्य करनेवालो को मृत्यु तक का दण्ड है। पारसी धर्म की उपासना तथा उनकी प्रात:काल की प्रार्थना-  प्द्युति प्राचीन् वैदिक  प्द्युति से मिलती जुलती है। परन्तु इस प्रकार की प्रार्थना का नियम सर्व साधारण में लुप्त होता जा रहा है। पारसी में बड़े बड़े यश करने की प्द्युति है। उसका वर्णन उचित स्थानों में दिया गया है। 
अग्निकुल - इसमें चौहान, चालुक्य, परमार और परिहार इन चार कुलोका समावेश किया जाता है। हिंदी महाभारतमीमासा के प्रसिध लेखक श्रि चिन्तामणि विनायक वैघ ने भारत इतिहास संशोधक मंडल नवे अधिवेशन में कहा था, "ये चार राजपूत वंश अपने को 'अग्निकुल' में गिनते है, पर  यह ठीक नहीं है। १००० ई· के लगभग ये अपने को सुर्य-चंद्रवंशी मानते थे। 'पृथ्वीराजरासो' में चंदबरदाई ने वर्णन किया है कि यज्ञ की रक्षा के लिये महर्षि व शिष्ठ ने अग्निकुंड चार राजपूतो को उत्त्पन्न किया। इसी कल्पना को एतिहसिक आवरण चढाकर  ये सुर्य-चंद्रवंशी चार कुल अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये अपने को अग्नि के वंशज समझने लगे। आगे चारअंगो ने भी वंशवृक्ष तयार कर इनका संबंध अग्नि से जोड दिया। परन्तु इसका फल अनुचित हुआ। पश्चिमीय इतिहास अन्व्रेपक यह मानने लगे कि इन कुलोकी उतप्त्ति हुए आदि अनार्य कुलो से हुइ थी और ऋषि वशिष्ठ ने इनको अग्नि-संस्कार कर इनको शुद्ध  करके राजपूतो ने में मिलाया। इससे इनकी सुर्य-चंद्रवंश की शुद्ध परम्परा नष्ट होने लगी। इसलिए व्यर्थ ही अग्निकुलोउत्त्पन्न केहलाने में इन राजपूतो को कुछ भी लाभ नहीं हुआ। प्रथमत: अग्निकुल की कल्पना मिथ्या है और इसी लिए कौन से राजा अग्निकुल से उत्पन्न हुए है इस बात कि खोज करना ही व्यर्थ है।" श्रियुत वैघ महोदय का कहना है की चंदबरदाई के पूर्व 'अग्निकुल'की कल्पना प्रचलित न थी। पर यह मान ने के लिए हम तयार नहीं  है।
चंदबरदाई पूर्व एसे परमार राजा थे जो अपनी उत्पत्ति अग्निकुल से मानते थे। परन्तु ११वी श्ताब्दी के पेहले इनका अपने को अग्निकुलोउत्पन्न मानने के विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता। फिर भी यह सन्देह होता है कि 'अग्निकुल'की कल्पना बहुत प्राचीन है। प्राचीन तामील साहित्य के आधार पर हार्नेली ने लिखा है कि एक राजवंशी उत्पत्ति अग्नि से हुइ है।
विद्या  के आश्रय दाता सात राजा  तामील देश में हो गये है। उनमें परम्बुनाडूका राजा 'पारि'सर्व प्रमुख था। चेर, चोल और पांड्या राजाओ द्वारा पराजित होने के कारण इस की लड़कियों के व्याह की ज़िम्मेदारी राजा के ब्रह्मिन मित्र कवि कपिलर पर थी। यह कवि उक्त लड़कियों को जिन दो राजाओ के पास ले गया था, उनमें से एक को उसने अग्नि- कुलोउत्पन्न कहा था। यह राजा पश्चिमी घात के एक पाहडी श्र्रयम नामक राज्य का शाशक था। इसका नाम पुतिकडिमाल इरुनगोवेल था। 
'तिरुविलायडल पुराण'के अनुसार कपिलर