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पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१३२

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हिन्दू धर्म
 

जिनकी ओर आश्चर्य और आदरपूर्वक देखते हैं ऐसे उच्च महात्माओं तक, सभी उसी प्रभु के प्रकाश हैं।

अन्त में मैं यह बताना चाहता हूँ कि इन सभी विभिन्न योगों के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार में आचरण करना अत्यन्त आवश्यक है; केवल तत्सम्बन्धी सिद्धान्तों से कोई लाभ नहीं हो सकता। पहले उनके विषय में श्रवण करना चाहिये, तत्पश्चात् उनका मनन करना चाहिये। हमें उन विचारों को तर्क द्वारा समझना चाहिये, अपने मनों पर उन्हें अंकित करना चाहिये और उनका निदिध्यासन करके अपरोक्ष अनुभव करना चाहिये जिससे कि अन्ततोगत्वा वे हमारे सम्पूर्ण जीवन ही बन जायें। तब तो धर्म, विचारों या सिद्धान्तों की एक गठरी ही मात्र नहीं रहेगा, न वह और केवल बौद्धिक सम्मति ही मात्र होगा; वह तो हमारी प्रत्यक्ष आत्मा में ही प्रविष्ट हो जायगा। बौद्धिक सम्मति द्वारा हम आज बहुतेरे मूर्खता भरे विषयों को भले ही ग्रहण कर लें और कल अपने विचारों को बिलकुल ही बदल डालें, पर यथार्थ धर्म कभी नहीं बदल सकता। धर्म साक्षात्कार है; बोलने की वस्तु नहीं, न वह मत है और न वह सिद्धान्तों का समूह ही है, चाहे वे कितने भी सुंदर क्यों न दिखते हों। धर्म तो परब्रह्म है, परब्रह्म से एकरूप होना है; श्रवण करना और स्वीकृति देना नहीं, वरन् वह तो आत्मा का श्रद्धा के विषय-परमात्मा में सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित, एकरूप हो जाना ही है। यही नो यथार्थ धर्म है।

 

॥समाप्त॥

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