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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है, तब उसका क्या होता है ? तब तो वह असीम आनंद का जीवन व्यतीत करता है। वह समस्त अन्य लाभों की अपेक्षा उत्कृष्ट लाभ स्वरूप परमानन्दधाम ईश्वर को प्राप्त करके परम आनंद का अधिकारी हो जाता है। यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं। भारत के भिन्न भिन्न पंथों का सर्वसामान्य धर्म यही है।

परन्तु अब तो यह प्रश्न उठता है कि तुरीय अथवा निर्विकल्प अवस्था का ही नाम पूर्णावस्था है और यह निर्विकल्प अवस्था तो एक मात्र अद्वितीय और गुणातीत है जिसमें व्यक्तित्व कदापि नहीं रह सकता। अतः जब आत्मा पूर्णत्व को, इस निर्विकल्प अवस्था को पहुँच जाता है तब वह ब्रह्म के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है तथा द्वैतज्ञानपरिशून्य हो जाने के कारण वह स्वयं ही सत्स्वरूप, ज्ञानस्वरूप एवं आनंदस्वरूप होजाता है। हम इस अवस्था के विषय में किन्ही किन्हीं पाश्चात्य दार्शनिकों की पुस्तकों में बार बार पढ़ा करते हैं कि वह अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता है या पत्थर के समान बन जाता है। इससे उन पण्डितों की अनभिज्ञता ही दीख पड़ती है, क्योंकि "जिन्हें चोट कभी नहीं लगी है वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं।"

मैं तुम्हें बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। अगर इस एक क्षुद्र शरीर में आत्मबोध होने से इतना आनंद होता है तो दो शरीरों में आत्मबोध का आनंद अधिक उत्कट होना चाहिये

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