पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/२४

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हिन्दू धर्म
 

और उसी तरह क्रमश: अनेक शरीरों में आत्मबोध के साथ साथ आनंद की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिये और जब विश्व- आत्मा का बोध हो जायगा तो आनंद की परम-अवस्था प्राप्त हो जायगी और मानव जीवन का यही चरम लक्ष्य है।

अतः इस असीम विश्वात्मक व्यक्तित्व की प्राप्ति के लिये इस दु:खमय क्षुद्र व्यक्तित्व के बन्धन का अन्त होना चाहिये। जब मैं प्राणस्वरूप हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनंदस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता है, और विज्ञान भी अन्त में इसी सिद्धान्त पर आ पहुँचा है। विज्ञानशास्त्र ने हमें यह सिद्ध कर दिया है कि हम इस देह को जो प्रत्यक्ष और एकभावापन्न मानते हैं वह भ्रम है, हमारा यह भौतिक व्यक्ति व भ्रम मात्र है। वास्तव में इस निरवच्छिन्न जड़ सागर में यह क्षुद्र शरीर तरंगवत् सदा परिवर्तित होता रहता है, अर्थत् प्रति क्षण ही नवीन होता रहता है। अतएव हमारा चैतन्यांश कभी परिवर्तनशील या भ्रमात्मक न होने के करण पूर्णतया सत्य है । और इसी कारण केवल यही अद्वैत ज्ञान कि 'मैं एक मात्र अद्वितीय आत्मा हूँ' एक युक्तियुक्त सिद्धान्त है।

विज्ञान एकता की खोज के सिवाय और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई भी विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जाता है, त्योंही उसका और आगे बढ़ना रुक जाता है; क्योंकि तब तो वह

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