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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकता है । इसी तरह रसायन-शास्त्र जब एक बार उस एक द्रव्य का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह शास्त्र और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान-शास्त्र जब उस एक शक्ति का-जिस शक्ति की अन्य शक्तियाँ विभिन्न रूप हैं-पता लगाकर अपना सेवाकार्य पूर्ण कर लेगा, तब उसे रुक जाना होगा और धर्म-शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायगा, जब वह उस एक मात्र मूल कारण को जान लेगा जो इस मर्त्यलोक में एक मात्र अमृतस्वरूप है, जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत् का एक मात्र अचल अटल आधार है, जो केवल एक मात्र परमात्मा है, जिनकी अन्य सब आत्माएँ प्रतिबिब स्वरूप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वग्वाद, द्वैतवाद आदि के द्वारा इस अन्तिम अद्वैत की प्राप्ति हुई। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता । यही सभी ज्ञान का-एक के बाद एक सभी शास्त्रों का-चरम उद्देश्य है।

सभी शास्त्र अन्त में इसी सिद्धान्त को पहुँचने वाले हैं। आज तो विज्ञानशास्त्र इस दृश्यमान जगत् को 'सृष्टि' नाम देना नहीं चाहता, वह उसे विकास मात्र कहता है। और हिन्दू को बड़ी खुशी इस बात की है कि जिस सिद्धान्त को वह अपने अन्त:करण में इतने दिनों से धारण किये हुए था, वही सिद्धान्त आज बड़ी जोरदार भाषा में, विज्ञान के अत्यन्त आधुनिक प्रयोगों द्वारा आवक स्पष्ट रूप से सिद्ध करके, सिखाया जा रहा है।

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