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४. हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्त्र[१]

धार्मिक मतों का जो प्रथम वर्ग हमारे सम्मुख दिखाई पड़ता है—मेरा अर्थ यथार्थ धार्मिक मतों से है, न कि अत्यन्त निम्न श्रेणी के मतों से जो 'धर्म' संज्ञा के योग्य नहीं हैं—उन सभी में दैवी स्फूर्ति तथा 'ईश्वर निश्वसित' आप्त वाक्य आदि की कल्पना समाविष्ट है। धार्मिक मतों का प्रथम वर्ग ईश्वर की कल्पना से प्रारम्भ होता है। हमारे सम्मुख यह विश्व है और वह विश्व किसी विशेष व्यक्ति द्वारा निर्माण किया गया है। इस विश्वब्रह्माण्ड में जो कुछ है, सभी उसी ईश्वर द्वारा रचा गया है। उसके साथ आगे चलकर, आत्मा की कल्पना आती है कि यह शरीर है और इस शरीर के भीतर कुछ है, जो शरीर नहीं है। हमारी जानकारी में धर्म की यही अत्यन्त प्राथमिक कल्पना है। भारतवर्ष में हमें इसके कुछ थोड़े से अनुयायी मिल सकते हैं, परन्तु यह कल्पना बहुत पहले ही त्याग दी गई। भारतीय धर्मों का प्रारम्भ बहुत विचित्र ढंग से हुआ है। बहुत बारीक छानबीन, हिसाब और अनुमान करने पर ही हम यह सोच सकते है कि भारतीय धर्मों की कभी यह अवस्था रही। जिस प्रकट स्वरूप में हम उन्हें पाते हैं, वह तो दूसरी सीढ़ी है, प्रथम नहीं। अत्यन्त प्राथमिक अवस्था में सृष्टि की कल्पना बडी ही विचित्र है


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  1. पश्चिम में दिया हुआ एक व्याख्यान।