पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्त्र
 

और वह यह है कि इस सम्पूर्ण विश्व की रचना ईश्वर की इच्छा से शून्य में से की गई है; इस सृष्टि का अस्तित्व नहीं था और उस शून्य से ही यह सब निकला है। द्वितीय अवस्था में हम देखते हैं कि इस सिद्धान्त में शंका उठाई जा रही है। असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?[१] वेदान्त में सर्वप्रथम यही प्रश्न पूछा जाता है। अगर यह विश्व सत्तात्मक है, तो वह किसी सद्‍वस्तु से ही निकला होगा; क्योंकि यह समझना तो सरल है कि हर जगह शून्य से तो शून्य ही निकलता है, 'कुछ नही' से 'कुछ नहीं' ही निकलता है। मानवी हाथों से जो कुछ भी कर्म किया जाता है, उसके लिये उपादान की आवश्यकता हुआ करती है। यदि गृह निर्माण हुआ है, तो पहले उसका उपादान विधमान था; अगर नाव बनी है तो पहले उसकी सामग्री थी; अगर कोई हथियार बनाये गये हैं, तो उनकी भी सामग्री पहले से ही थी। कार्य की उत्पत्ति इसी प्रकार हुआ करती है। अत: यह स्वाभाविक हो था कि शून्य में से इस ब्रह्माण्ड की रचना की गई, यह कल्पना त्याग दी गई और जिस उपादान से यह विश्व गढ़ा गया है, उस उपादान के अनुसन्धान का प्रारम्भ हुआ। धर्म का समग्र इतिहास यथार्थ में इस उपादान-कारण की खोज ही है। किस उपादान से यह सब गढा गया है? निमित्त कारण या ईश्वर के प्रश्न को अलग रखकर, ईश्वर ने विश्व की रचना की, इस प्रश्न को अलग रखते


९१

  1. कथमसत: सज्जायेत इति।

    —छान्दोग्य उपनिषद्, ६।२।२