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सुमिरन कौ अग]
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अनुरक्त मे मानव की स्थिति वेश्या के पुत्र जैसी है। वह किसे अपना पिता कहे ? इसी प्रकार वहु देवोपासना मे अनुरक्त प्राणी किसे अपना प्रिय देव कहेगा?

भावार्थ—प्रिय राम को छोड़ कर जो अन्य का जप करता है, वह वेश्या पुत्र के सदृश है जो अपने पिता को नही जानता है। यह किसे अपना पिता कहे?

विशेष—(१) प्रस्तुत साखी का पाठ करते ही पाठक के मस्तिष्क पर कबीर क्षत्यधिक स्पष्ट वादिता तथा क्टूलियो की छाप अंकित हो जाती है। "बेस्वा केरा पूत ज्यूं कहै कौन सूं वाप" पत्ति वास्त्व मे कटुना तथा स्पष्ट वादिता से सम्पन्न होते हुए भी अत्यन्त यथाथं तथा सत्य है। यथा वेश्या का पुत्र सब पिता से अनिभिज्ञ होता है तथा बहु देवोपासना मे अनुरत्त किसे अपने स्वामी, प्रभू और देवता मान सकता है। (२) राम पियारा 'तात्पर्य है प्रियराम।' लौकिक जीवन मे जो स्वजन-परिजन प्रिय है उनसे भी प्रियतर, प्रियतम राम (३) "छांदि कर" से तात्पर्य है उपेक्शा करके। (४) आन" का तात्पर्य है अन्य। पर यहां पर उस्का अभिप्राय हो "वहुदेव।" आन क प्रयोग "माया या" माया जनित तत्वो की ओर

शब्दार्थ—पियारा = प्यारा, प्रिय। आन= अण्य। जाप= जप। चेस्त्रां= चेश्या। केरा= का। ज्यूं- ज्यो सू- से।

कबीर आपण राम कहि स्पौरां राम कहाई।
जिहि मुखि राम न ऊबरै, तिहि मुख फेरि कहाइ॥२३॥

सन्दर्भ—राम नाम का महात्म्य तथा गौरव वर्णनातीत है। कबीर ने तो रामनाम के अतिरिक्त अन्य समस्त्र साघना को अपार दुख का द्वार माना है। "भगति भजन हरि नाव है,दूजा दुक्ख अपार।" अत. 'मनसा वाचा कर्मणा कबीर सुमिरण सार ।"अत; कबीर स्वत; राम कहने और दूसरे से प्रयत्न पूर्वक राम कहलाने के पक्ष मे है।

भावार्थ— कबीर कहते है कि स्वत: राम कहिये और दूसरो से। राम नह- लाइये। जिन के मुख से राम नाम का उच्चारण उस्के मुंह मे पुनः (प्रयत्न पूर्वक) नाम उच्चारण कराइये।

विशेष— प्रस्तुत साखी मे कबीर ने दूसरी मे राम नाम के प्रति व्यभिचि समुत्पन्न करने के सम्बन्ध मे उपदेश किये है। "जिहि पुसी राम न ऊचरै" महाए घमो भाच की परि पुष्टि के लिये पर्याप्त है। जिन मुख ने राम नाम का उच्चारण न हो उनमे प्रयत्न पूर्वक नाम उच्चारण करना चाहिये।

का० मा० पा०—७