पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०]
[कबीर की साखी
 

 

शब्दार्थ-स्याबित = सम्पूर्ण । ढंढोलता = खोजते हुए ।

जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नांहि ।
सब अँधियारा मिटि गया जब दीपक देख्यां माहि ॥ ३५ ॥

सन्दर्भ-ह्रदय मे ब्रह्मानुभूति होते ही समस्त अंधकार मिट गया।

भावार्थ-जब तक अहं था तब तक मैं हरि को नहीं प्राप्त कर पाया। अब तो हरि ही हैं मैं नही हूँ, जब से ह्रदय मे स्वय प्रकाश के दर्शन हुए तब से समस्त ताप और पाप नष्ट हो गए ।

शब्दार्थ-मै=अहंमभाव ।

जा कारणि मैं ढूंढता,सनमुख मिलिया आइ।
धन मैली पिव ऊजला,लागि न सकौं पाइ॥ ३६ ॥

सन्दर्भ-प्रिय के साथ कैसे एकाकार होऊ मैं तो मलीन हूँ।

भावार्थ-जिसको मैं ढूंढत फिरता था वह सन्मुख मिल गया,परन्तु पाप से पंकिल आत्मा रूपी प्रिय स्त्री प्रिय के चरणो का स्पर्श कैसे करे।

शब्दार्थ-धन=स्त्री,(आत्मा)। मैली=पापो से युक्त।

जा कारणि मैं जाइ था,सोई पाई ठौर।
सोई फिरि आपण भया,जासू कहता और॥३७॥

सन्दर्भ-आत्मा और परमात्मा मिलकर एकाकार हो गए ।

भावार्थ-जिसके खोज मे मैं भटक रहा था वह अपने स्थान पर प्राप्त हो गया और जिसे मैं विलग समझता था वही अभिन्न हो गया।

शब्दार्थ-जा कारणि-जिसके लिए।

कबीर देख्या एक अंग,महिम कही न जाइ।
तेज पुंज पारस धरणीं,नैनू रहा समाइ॥३८॥

संदर्भ-प्रकाश पुंज परमात्मा नेत्रो मे समाहित हैं।

भावातर्थ-कबीर दास कहते हैं कि मैंने प्रभु के दर्शन एक निष्ठ होकर किए। उनकी महिमा अनिव्ंचीय हैं। वह तेज पुन्ज हैं,पारस है,धनी है,वह नेत्रो मे समाहित हो रहा है।

शब्दार्थ-एक अंग=एक निष्ठ होकर धरणी=स्वामी।