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[कबीर की साखी
 

 

राम रसाइन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवरण दुलभ है, माँगै सीस कलाल॥२॥

संदर्भ—ब्रह्मानन्द के प्रेम का रस पाने में जितना सुमधुर होता है उसकी प्राप्ति उतनी ही कठिन होती है। उसके लिए सर्वस्व त्याग करना पड़ता है।

भावार्थ—प्रभु भक्ति का प्रेम रस पीने में बड़ा मधुर होता है और पीते-पीते और अधिक मधुर होता जाता है किन्तु कबीर कहते हैं कि इसकी प्राप्ति की शर्त बड़ी कठिन है क्योंकि गुरु रूपी मदिरा विक्रेता कठिन से कठिन स्थिति का सामना करने के लिए साधक को उपदेश देता है।

शब्दार्थ— कलाल = मदिरा पिलाने वाला।

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौपै सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ॥३॥

संदर्भ—प्रभु प्राप्ति के लिए सर्वस्व त्याग करना पड़ता है प्रत्येक कष्ट लना पड़ता है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु भक्ति रूपी मदिरा को बेचने वाले सतगुरु की दुकान पर मदिरा पीने वाले बहुत से साधक बैठे हैं। किन्तु उस मदिरा का पानी वही पी सकता है जो अपने को साधना की कठिन से कठिन परिस्थितियों में डाल दे अन्यथा उस मदिरा को नहीं पिया जा सकता है।

विशेष—साँग रूपक।

शब्दार्थ—भाठी = भट्ठी जिसमें मदिरा तैयार की जाती है। बहुतक = बहुत से।

हरि रसपीया जांणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूमत रहै, नांही तन की सार॥४॥

संदर्भ—हरि-रस का पान करने वाला अपने शरीर की सुधि-बुधि भूल जाता है।

भावार्थ—हरि-भक्ति रसामृत का पान किया उसी व्यक्ति को समझना चाहिए जिसके ऊपर उसका स्थायी नशा बना रहे। और वह उस नशे में मदमस्त हाथी के समान मतवाला होकर इधर-उधर घूमता रहे उसे अपने शरीर तक की भी सुधि-धिन रहे।

शब्दार्थ—मैमता = मस्त।