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[कबीर की साखी
 

 

सौंदर्भ―माया के साथ अहं का त्याग भी आवश्यक है।

भावार्थ―हे जीव! यदि तूने माया का त्याग कर दिया तो उसी के त्याग से क्या होता है अभी सम्मान पाने की भावना का त्याग तो नहीं है। यह मान सम्मान को भावना बडे-बडे मुनियों को भी पथ भ्रष्ट कर देती है। अतः सम्मान की भी परित्याग आवश्यक है।

रामहि थोड़ा जाँणि करि, दुनियाँ आगैं दीन।
जीवॉ कौ राजा कहैं, माया के आधीन॥१८॥

सन्दर्भ―वास्तविक स्वामी तो पर ब्रह्म है।

भावार्थ―मनुष्य ब्रह्म के अस्तित्व को अल्प समझ करके संसार को ही अधिक महत्वशाली समझता रहता है और उसी मे उलझता रहता है। मनुष्य उस व्यक्ति को ही अपना स्वामी समझ लेते हैं जो माया के साधीन होकर वैभवशाली दिखाई पड़ता है।

रज बीरज की कली, तापरि साज्या रूप
राँम नाँम बिन बूढ़ि है, कनक काँमिणी कूप॥१९॥

सन्दर्भ―मनुष्य का शरीर स्त्री के रज और पुरुष के वीर्यं के सम्मिश्रण से बनी हुई कली के समान उस पर भी जीव साज सज्जा का आडम्बर करता है किन्तु यदि वह राम नाम का आश्रय न ग्रहण करेगा तो धन और स्त्री रूपी कुएं मे डूब जायगा।

विशेष―तुलसी ने भी कहा है―

“एक कंचन एक कामिनी दुर्गम घाटी दोइ॥”

दोहावली

माया तरवर त्रिविधका, साखा दुख सन्ताप।
सीतलता सुपिनैं नहीं, फल फीकौ तनि ताप॥२०॥

सन्दर्भ―माया रूपी वृक्ष और उसकी छाया जीव को दुख ही प्रदान करते हैं।

भावार्थ―माया रूपी वृक्ष सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणो से मिलकर बना है और इसकी शाखायें दुख और सन्ताप की हैं किन्तु इस वृक्ष के नीचे बैठकर जीव को स्वप्न मे भी शीतलता का अनुभव नहीं हो सकता है और इसके फल भी अत्यन्त फीके हैं और शरीर को ताप देने वाले हैं।

शब्दार्थ―विविध=सत, रज, तम।