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[कबीर की साखी
 

 

शव्दार्थ―रूसणां=रूठना। सरावगी=जैन साधु।

पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं।
औरूँ कौं परमोधतां, गया मुहरकां मांहिं॥१३॥

सन्दर्भ―पंडत दूसरो को तो उपदेश देते हैं किन्तु स्वयं उस पर आचरण नहीं करते हैं।

भावार्थ―कबीरदास जी पंडित से कह रहे हैं कि तू ऊपर से ढोग दिखाकर ज्ञानी और भक्त बन रहा है किन्तु भक्ति अन्तःकरण में व्याप्त नही होती है और दूसरों को तो तू ज्ञान और भक्ति का प्रवोध, उपदेश देता रहता है किन्तु स्वयं घोर पाप करता रहता है।

शब्दार्थ―पर बोधर्ता=उपदेश करता रहा। मुहरका=वधस्थान।

चतुराई सूबै पढ़ी, सोई पांजर माँहि।
फिरि प्रमोधै आँन कौ,आपण समझैं नाहिं॥१४॥

सन्दर्भ―तोते के उदाहरण के द्वारा कबीरदास जी समझाते हैं कि जीव को राम नाम का महत्व समझना चाहिए।

भावार्थ―सम्पूर्णं चतुराई सीख लेने के कारण तोते को लोग पिंजडे मे बन्द कर देते हैं किन्तु स्वयं पिंजड़े मे बन्द होकर भी वह और लोगो को उपदेश देता है कि राम नाम का उच्चारण करो यद्यपि वह स्वय राम नाम के महत्व को समझ नही पाता है।

शब्दार्थ—पंजर=पिंजड़ा। प्रमोधै=उपदेश देना।

रासि पराई राषताँ, खाया घर का खेत।
औरों कौं प्रमोधताँ, मुख मैं पड़िया रेत॥१५॥

सन्दर्भ―ऐसे पंडितो के प्रति संकेत है जो दूसरो को तो उपदेश देते रहते हैं किन्तु स्वयं विषय-वासना ग्रस्त रहते हैं।

भावार्थ―कुछ किसान अपने खेतो के अनाज की रक्षा न करके थोडा अन्न पाने के लिए दूसरो के खेत की रक्षा करते हैं उसी प्रकार ढोगी पंडित दूसरो को हो उपदेश देते रहते हैं स्वयं तो विषय-वासना मे पडकर अपना जीवन नष्ट करते रहते हैं।

शब्दार्थ―रासि=अन्न का ढेर।

तारा मंडल वैसि करि, चंद बड़ाई खाइ।
उदै भया जब सूर का, स्यूँ तारां छिपि जाइ॥१६॥