है किन्तु यदि इनका ज्ञान न हो तब भी राम नाम का स्मरण करना अच्छा है भले ही लोग निन्दा करते रहे।
शब्दार्थ―पढ़िबौ=पढना। थैं=से। भल भल=भले ही।
कबीर पढ़िवा दूरि करि, पुसतक देइ बहाइ।
बांवन आषिर सोधि करि, ररै ममैंचित लाई ॥२॥
सदर्भ―प्रभु-भक्ति ही जीव का काम्य है।
भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि पढना बन्द करके पुस्तको को वहा दे। और वर्णमाला के ५२ अक्षरो का भली प्रकार से शोध करके उसमे से केवल दो अक्षर 'र' और 'म' में अपने चित्त को लगा दे। उसी से मुक्ति प्राप्त होती है।
शव्दार्थ―आषिर=अक्षर। ररै ममै=‘र’ और ‘म’।
कबीर पढ़िवा दूरि करि, आथि पढ़्या संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूॅ, तौ क्यूं करि करै पुकार॥३॥
सौंदर्भ―शास्त्रादि के पाठ से ही मुक्ति सम्भव नही होती है । मुक्ति तो प्रभु-प्रेम से ही प्राप्त होती है।
भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि वेद शास्त्रों का अध्ययन करना छोड़ दे क्योकि उसके पढ़ने के बाद भी ससार का अन्त हो जाता है। यदि हृदय मे प्रभु-प्रेम की पीड़ा न उत्पन्न हुई तो केवल राम नाम का उच्चारण मात्र करने से क्या लाभ?
शब्दार्थ―आदि=अत।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै अषिर पीव का, पढ़ सु पंडित होइ॥४॥३७७॥
संदर्भ―राम नाम का महत्व समझ लेना ही वास्तविक पण्डित होना है।
भावार्थ―संसार के समस्त धर्म ग्रन्थो को पढ-पढ करके सारा संसार मरा गया किन्तु उनमे से कोई भी वास्तविक पंडित नहीं हो सका। किन्तु जिसने प्रियतम का (प्रभु का) एक शब्द ‘राम’ पढ़ लिया वह वास्तव मे पंडित हो गया।
शब्दार्थ―मुवा=मरा।