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[कबीर की साखी
 

 

जब लग पीव परचा नहीं, कन्या कँवारी जाँणि।
हथलेवा हौसैं लिया, मुसकलि पड़ी पिछांणि॥२४॥

सन्दर्भ――ईश्वर की प्राप्ति उतना आसान नहीं है जितना लोग उसे समझते हैं।

भावार्थ――जब तक आत्मा रूपी कन्या का परमात्मा रूपी प्रियतम से परिचय नहीं हो जाता है तब तक उसे कुमारी ही समझना चाहिए। आत्मा बडी प्रसन्नता से प्रभु भक्ति के मार्ग पर अग्रसर तो हो जाती है किन्तु बाद मे उसमे अनेको कठिनाइयाँ आकर पड़ जाती हैं।

शब्दार्थ――परचा=परिचय। पिछाणि=बाद मे।

कबीर हरि की भगति का, मन में परा उल्हास।
मैं वासा भाजै नहीं, हॅूण मतै निज दास॥२५॥

संदर्भ――मनका अहंकार ही ईश्वर प्राप्ति मे बाधक है इसलिए उसके नष्ट होने पर ही ईश्वर से साक्षात्कार होता है।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि जीव के हृदय मे भगवान की भक्ति का बहुत उल्लास भरा हुआ होता है किन्तु अहंरूपी चोर के घर से न निकलने के कारण वह भक्त अपने वास्तविक भक्ति मार्ग से विचलित हो जाता है।

शब्दार्थ――षरा=बहुत। उल्हास=उल्लास। मैंवासा=चोर।

मैंवासा मोई किया, दुरिजन काढ़ै दूरि।
राज पियारे रामका, नगर वस्या भरि पूरि॥२६॥४६२॥

सन्दर्भ――वासना और अहंकार को नष्ट कर देने पर तो प्रभु की प्राप्ति निश्चय हो हो जाती है।

भावार्थ――अहंरूपी चोरो को मार दिया है और काम क्रोधादि दुर्जनो को भी अलग कर दिया है और इस प्रकार अब मेरे भीतर और बाहर परम प्रभु परमात्मा का ही राज्य है और समस्त कार्य उसी की प्रेरणा से हो जाते हैं।

विशेष—तुलना कीजिए।

उरप्रेरक रघुवंस विभूपन।

――मानस

शब्दार्थ――मोई किया=मार डाला।