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सगति कौ अंग]
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शब्दार्थ――भाषी=मक्खी। गडि=चिपक गई। पष=पख। बोई =बुराई।

ऊॅचै कुल क्या जनमियां, जे करणीं ऊँच न होइ।
सोवन कलस सुरै भरया, साधू निंद्या सोइ॥७॥४६६॥

प्रसंग――उच्चकुल में जन्म लेने से ही मानव महान नही बन जाता है। उसके कर्म हो उसे महान या नीच व्यक्ति बना सकते हैं।

भावार्थ――उच्चकुल मे जन्म लेने का कोई महत्व नहीं हैं जब तक कि हम उसके अनुरूप कार्यं न करे। यह उसी प्रकार है कि स्वर्ण के कलशा मे सुरा भरी हो तो उस स्वर्ण के कलश को महिमा समाप्त हो जाती है। इसीलिए साधू जन के लिए बुरे कार्य निंदा के कारण होते हैं और सज्जन व्यक्ति उनकी आलोचना करते हैं।

शव्दार्थ――ऊँचे कुल=उच्च वंश। जनमियाँ=जन्म लेना। करणी= कर्म। सोवन= स्वर्ण। सुरै=मदिरा। सोई=उसकी माँ। साधु= सज्जन।

 

 

२६. संगति कौ अंग

देखा देखी पाकड़ै, जाइ अपरचै छूटि।
विरला कोई ठाहरौ, सतगुर साँमी मूठि॥१॥


प्रसंग――सदगुरु ही संगति साधक का उचित पथ प्रदर्शन कर सकती है।

भावार्थ――साधना के मार्ग पर साधक यदि किसी को देखा देखी मे उसका अनुकरण करके चलता है तो वह पथ से भ्रमीभूत हो जाता है क्योकि उस पथ से उसका परिचय नहीं है। कोई विरला व्यक्ति हो सदगुरु की कृपा (मूठ भरके वाण का प्रहार) से ही साधना के उचित मार्ग पर अग्रसर हो कर ठहर पाता है।

शब्दार्थ――पाकडै=पकड़ना। जाइ= जिससे। अपरचै= अपरचित। मूठि=सिर।

देखा देखी भगति है, कदे न चढ़ई रंग।
विपति पड़्याँ यूॅ छाड़सी, ज्यूॅ कंचुली भवंग॥२॥

क० सा० फा०-१५