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[कबीर की साखी
 


सन्दर्भ—जिस हृदय में संशय है, वहाँ राम का निवास नही होगा।

भावार्थ—जिस हृदय में संशय अर्थात् द्वैत भावना है, उसमें राम का निवास नहीं हो सकता है। राम एवं भक्त दोनों के बीच में तृण तक का भी संचार नहीं हो सकता है।

शब्दार्थ—विचि = मध्य में। तिणा = तृण।

स्वारथ को सबको सगा, जब सगलाही जांणि।
बिन स्वारथ आदर करै, सो हरि की प्रीति पिछांणिं॥१५॥

सन्दर्भ—हरि भक्त वही है, जो स्वार्थ रहित होकर सबका आदर करता है।

भावार्थ—संसारिक प्राणियों की यह रीति है कि स्वार्थं से प्रेरित हो कर सभी अपने बन जाते हैं परन्तु जो स्वार्थ रहित होकर दूसरों का आदर करता है तो समझ लो कि उसके हृदय में हरि की भक्ति विद्यमान है।

शब्दार्थ—सगला = सिगरा। स्वारथ = स्वार्थ।

जिहि हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छांनां होइ।
जतन जतन करि दाविये, तऊ उजाला सोइ॥१६॥

संदर्भ—हरि की ज्योति को छिपाया नहीं जा सकता है।

भावार्थ— जिस हृदय में हरि का पदार्पण हो गया है। उसके प्रकाश को कैसे छिपाया जा सकता है। चाहे जितना यत्न करके उस प्रकाश को छिपाया जाय तब भी उसका प्रकाश प्रकाशित ही होता रहेगा।

शब्दार्थ—छांनां = छिपाना।

फाटै दीदै मैं फिरौं, नजरि न आवै कोइ।
जिहि घट मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाँना होई॥१७॥

सन्दर्भ—महात्मा दूर से ही दृष्टिगत हो जाता है।

भावार्थ—मैं आँखें फाड-फाड कर चारों ओर देखता हूँ परन्तु कोई दिखाई नहीं पड़ता है। परन्तु जिस घट में मेरा साई है, (हरि भक्त) वह छिपाया नहीं जान पड़ता है।

शब्दार्थ—फाटै = खोजकर। दीवै = नेत्र।

सब घटि मेरा साइयाँ सूनी सेज न कोइ।
भाग तिन्हौं का है सखी, जिहि घट परगट होगा॥१८॥

सन्दर्भ—स्वंय में हरि का निवास है ‌