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बेसास कौ अंग]
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कबीर का तूं चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ।
अण च्यंत्या हिरजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ॥६॥

सन्दर्भ――ईश्वर अप्रत्याशित रूप से समस्त अभाओ की पूर्ति करता है। हे प्राणी! तू व्यर्थं के लिए चिंता करता है। चिंता करने से क्या होगा? बिना सोचा हुआ अर्थात् अप्रत्याशित रूप से हरि जी सबकी ओर ध्यान रखते हैं।

शब्दार्थ――अणचर्च्यत्या=अप्रत्याशित।

करम करीमां लिखि रहया, अब कछू लिख्या न जाइ।
मासा घटै न तिल बधै, जौ कोटिक करै उपाइ॥७॥

सन्दर्भ――ईश्वर हमारे कर्मों का सच्चा मूल्यांकन करने वाला है।

भावार्थ――ईश्वर स्वतः हमारे कर्मों का लेखा-जोखा रखता है, इसलिए अब कुछ भी नहीं कहते बनता। कोटिशः उपाय करने पर भी कर्मों के लेखा मे अन्तर नही पड़ता है।

शब्दार्थ――करीमा=ईश्वर।

जाकौ जेता निरमया, ताकौं तेवा होइ।
रंती घटै न तिल बधै, जौ सिर कूटै कोइ॥८॥

सन्दर्भ――ईश्वर सबकी आवश्यकतानुसार देता है।

भावार्थ――ईश्वर ने जिसको जिस योग्य बनाया है उसको उतना ही देत है। न रत्ती घटता है, न तिल भर बढेगा चाहे कितना ही प्रयत्न मनुष्य कर ले।

शब्दार्थ――निरमया=निर्धारित किया।

च्यंता न करि अच्यंत रहु, साँई है संम्रथ।
पसु पंपेरू जीव जंत, तिनकी गांडि किसा ग्रंथ॥६॥

सन्दर्भ――हे प्राणी! चिन्ता छोड दे, ईश्वर सबकी चिन्ता करता है।

भावार्थ――हे प्राणी! निश्चित होकर जीवन व्यतीत कर स्वामी बड़ा समर्थ है पशु-पक्षी जीव-जन्तु आदि की चिन्ता कौन करता है?

शब्दार्थ――सम्रथ=समर्थ, शक्तिमान। गाडि=गणना।

संत न बांधै गांठड़ी, पेट समाता लेइ।
सांई सूॅ सनमुख रहै, जहाँ मांगै वहाँ देइ॥१०॥

सन्दर्भ――सत सग्रह नहीं करते, केवल आवश्यकता भर ग्रहरण करते हैं।

भावार्थ――सतजन आवश्यकतानुसार ग्रहण करते हैं। सग्रह नही करते हैं। वे ईश्वर की भक्ति मे लीन रहते हैं। जहाँ जब जैसी आवश्यकता होती है स्वामी उन्हें देता है।