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[कबीर की साखी
 


शब्दार्थ—जठरांह = पेट में। उदिकंथै = रज और वीर्य से। पंड = पिंड। तास = उसमें। उरव पाव अरध सीस = मातृ गर्भ में शिशु की उल्टी स्थिति। अंन = अन्न। चषियौं = छुआ नहीं। उद्र= उदर। छंछरै = खाली रहा।

भूखा भूखा क्या करै, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग॥२॥

सन्दर्भ—समस्त अभाव का पूरक ब्रह्म है।

भावार्थ—हे प्राणी! भूख भूख क्यों कहकर अपने अभावों की व्यथा का गान कर रहा है? जिस ब्रह्म ने उदर रूपी बरतन बनाया है वही इसको पूर्ण करेगा।

शब्दार्थ—भाडा = पात्र (उदर)। घड़ि = बनाकर। मु = मुँह।

रचनहार कूं चीन्हि लै, खैवे कूं कहा रोइ।
दिन मंदिर मैं पैसि करि, तांणि पछेवड़ा रोइ॥३॥

सन्दर्भ—ब्रह्म को पहचानने की चेष्टा करनी चाहिए।

भावार्थ—हे प्राणी! जिस ब्रह्म ने तेरा निर्माण किया है उसे पहचानने की चेष्टा करना चाहिए। तू अभावों के पीछे क्यों रोता है, दिल रूपी मन्दिर में ब्रह्म को पहचान कर विश्वास रूपी चादर ओढ़कर निश्चित हो जा।

शब्दार्थ— खैवे = खाने को।

रांम नांम करि बोंहड़ा, बांही बीज अघाइ।
अंति कालि सूका पड़ै, तौ निरफल कदे न जाई॥४॥

सन्दर्भ— राम नाम रूपी बीज की कृषि करने से खेती व्यर्थ नहीं जाती।

भावार्थ—राम नाम रूपी बोहड़ा के द्वारा कर्म रूपी बीज को मन भरकर बो दो, यदि अन्ततोगत्व सूखा भी पड़ जाए तो खेती व्यर्थ नहीं जायेगी।

शब्दार्थ—बोहड़ा = फसल बोने की नलिका। वांही = बीज। अघाई = भरपूर।

चिंतामणि मन मैं बसै, सोई चित मैं अंतिम।
बिन च्यंता च्यंता करैं, इहै प्रभू की शांति॥५॥

सन्दर्भ—ईश्वर को सबकी चिंता रहती है।

भावार्थ—हे प्राणी! ब्रह्म तेरे मन में अज्ञात रूप से निवास करता है। वह स्वतः सबकी चिंता रखता है; यहाँ उसका स्वभाव है।

शब्दार्थ—आणिं = प्रवृत कर दे। वांणी = प्रकृति।