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ग्रन्थावली]
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न कर सकी कि व्यापक ब्रह्म नरतनधारी हो सकता है, तब उनका जीवन कष्टमय होगया। सती सब प्रकार पवित्र एवं उदात्त थी। परन्तु बौद्धिकता जन्य संदेह शीलता से उनकी निवृत्ति नहीं हो पाई थी। इसी कारण उन्हें पुनरागमन के चक्र में पड़ना पड़ा। शिवजी का कथन दृष्टव्य है—

मोरेहु कहे न संसय जाही। विधि विपरीत भलाई नाहीं।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढावै साखा।

उमा को तत्त्व-ज्ञान तब प्राप्त हुआ, जब उन्होंने यह कहा—

तब कर अस विमोह अब नाहीं। राम कथा पर रुचि मन माहीं।

और अन्त में 'रामचरितमानस' का उपसंहार शिव के प्रति उमा के इस कथन से होता है—

नाथ वृथा मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा।

(१८३)

सब भूले हो पाषंडि रहे,
तेरा बिरला जन कोई राम कहै॥टेक॥
होइ अरोगि बूटी घसि लावै, गुर बिन जैसै भ्रमत फिरै॥
है हाजिर परतीति न आवै, सो कैसे परताप धरै॥
ज्यू सुख त्यू दुःख द्रिढ़ मन राखै एकादसी इकतार करैं।
द्वादसी भ्रमै लष चौरासी, गर्भ वास आवै सदा मरे॥
मैं तै तजै तजै अपमारग चारि बरन उपरांति चढ़ै।
ते नहीं डूबै पार तिरि लवै, निरगुण अगुण सग करै॥
होइ मगन रांम रँगि राचै, आवागवन मिटै धापे।
तिनह उछाह सोक नहीं व्यापै, कहै कबीर करता आपै॥

शब्दार्थ—अपमार्ग = कुमार्ग। पाखंड = वाह्याचार। धापै = संतुष्ट हो जाता है।

संदर्भ—कबीर राम-भक्ति का प्रतिपादन करते हैं।

भावार्थ—सब लोग व्यर्थ के वाह्याचारों में भ्रमित हैं अर्थात् वे इस भ्रम में हैं कि वाह्याचारों के द्वारा उनका उद्धार हो जाएगा। हे भगवान, तेरा कोई विरला जीव ही सच्चे मन से तेरा स्मरण करता है। अगर कोई व्यक्ति जड़ी-बूटी घिस कर प्रयोग में लाता है (उपयुक्त उपचार करता है तो उसका रोग अवश्य ही नष्ट हो जाता है। और यदि वह ऐसा नहीं करता है, तो वह रोगी ही बना रहता है। संसार के लोगों की ठीक यही दशा है। वे गुरु के पास तो जाते नहीं हैं और इधर-उधर व्यर्थ ही भटकते फिरते हैं। वे ज्ञान-वैराग्य एवं भक्ति रूपी बूटी के सेवन के अभाव में नाना प्रकार के वाह्याचारों में भटकते फिरते हैं। भगवान सर्वव्यापी हैं, परन्तु लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वे प्रभु के वास्तविक ऐश्वर्य एवं उनकी सामर्थ्य को क्यों कर समझते हैं? जैसे सुख में रहते हैं,