पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ग्रंथावली]
[६०१
 

१९१

माधौ मै ऐसा अपराधी,
तेरी भगति होत नहीं साधी ।। टेक ॥

कारनि कवन आइ जग जनम्यां, जनमि कवन सचूपाया ।
भौ जल तिरण चरण च्यतामणि, ता चित घड़ी न लाया ॥
पर निद्या पर धन पर दारा, पर अपवाद सूरा ।
ताथै आवागवन होइ फुनि फुनि, ता संग न चूरा ॥
काम क्रोध माया मद मंछर, ए सतति हम मांहीं ।
दया धरम ग्यांन गुर सेवा, ए प्रभू सूपने नांहीं ।।
तुम्ह कृपाल दयाल दमोदर, भगत बछल भौ हारी ।
कहै कबीर धीर मति राखहु, सासति करो हमारी ॥


शब्दार्थ -सच =सुख । चिन्तामणि=वह पत्थर विशेष जो समस्त चिन्ताओ को दूर कर देता है । चूरा-छुरा । सासति= शास्ति । सग= आसक्ति । सतति सदैव । मत्सर=डाह, जलन ।

सन्दर्भ - कबीर दीनता पूर्वक अपने उद्धार की याचना करते हैं।

भावार्थ-हे प्रभु । मैं ऐसा अपराधी हूँ कि मुझसे न तो आपकी भक्ति हो सकी और न किसी प्रकार की साधना ही हो सकी। पता नही, किन पापकर्मों के परिणाम-स्वरूप मेरा जन्म इस ससार मे हुआ। मैंने जन्म लेकर कौन सा सुख पाया। .(तात्पर्य कोई नही) । मैंने ससार सागर से पार उतरने वाले भगवान के चरण रूपी चिन्तामणि मे घडी भर भी ध्यान नही लगाया (अन्यथा मेरी समस्त चिन्ताएं दूर हो जाती) । दूसरो की निन्दा करने मे, दूसरो के धन पर नजर लगाने मे, पराई स्त्रियो को ताकने मे तथा दूसरो पर लाच्छन लगाने मे मैं शूरवीर रहा हूं-अर्थात् इन कर्मों को पूरे उत्साह के साथ करता रहा हूँ। इन्ही कर्मों के फलस्वरूप मेरा बार-बार आवागमन होता है, परन्तु इतने पर भी मैंने इन बुरे कामो के प्रति आसक्ति का त्याग नहीं किया है । काम, क्रोध, माया (अपने पराए का भाव), मोह, मद एव मत्सर-ये अवगुण मेरे भीतर स्थायी रूप से निवास करते है । इसके विपरीत दया, धर्म (सदाचरण), त्याग, गुरुसेवा आदि ये सब गुण तो मेरे पास स्वप्न मे भी नहीं फटक पाते हैं । हे दामोदर, तुम्ह कृपालु, दयालु, भक्तो के प्रिय एव ससार के विषयो से उत्पन्न दोषो को दूर करने वाले हो । कवीर कहते हैं कि आप मेरी बुद्धि को अपनी भक्ति मे स्थिर कर दें तथा मेरा सुधार करके मेरा उद्धार कर दें ।

अलंकार-(1) अनुप्रास-कारनि, कवन, कवन, जग जनम्या जनमि । चरण चिन्तामणि, चित ।। (1) वक्रोक्ति-कवन सचु पाया। () रूपक-भौजल', चरण चिन्तामणि, भौहारी । (iv) पुनरुक्ति प्रकाश-मुनि फुनि ।