पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सदर्भ -कबीर दास संसार की निरर्थकता वताकर भगत्राम-स्मरण पर बल देते हैं|

   भावार्थ-- हे माधव | माया मुझ से वस्त्र बुनाने को चली अर्थात् उसने मुझ को जीविका के धन्धे मे लगा दिया| परिणाम स्वरूप यह संसार जुलाहे कबीर को जीतता जा रहा है अर्थात मै माया के वशीभूत होता जा रहा हूँ  | माया ने नवद्वार रूपी नौ गज तथा दस इन्द्रियाँ  रूप दस गज अर्थात कुल उन्नीस गज सूत नीकालकर इस शरीर रूपी साडी तैय्यार  की| इस शरीर के निर्माण से सप्त-धातुऐ रूपी सूत के ३६० नाडीयाँ रूपी फेरे(गाठें ) दिए| इसके ऊपर वासना रूपी गह्र्री चमकवाली कलफ लगाई| इसको न कोई तौलने वाला है और न नापने वाला गजी इसको गज से नाप सका है| परन्तू है यह पक्की दाई सेरी| इसके इन दाई सेरो मे यदि पाव भर भी जरा सी भी  कमी आती है,तो यह दुष्टा नारी सघर्ष करने लागती है|जाग्रतावस्या मे यह शरीर अपने स्वामी जीव के साथ बैटकी करता है और अपनी ईच्छाओ की आवश्यकताएँ  उससे निवेदित करके उन्हे पूर्ण करने के लिए विवश करता है| जब यह शरीर रूपी साडी संसार रूपी घर छोड़ कर चली जाती है, तब जीव रूपी जुलाहा भी इस शरीर से रुष्ट  होकर चला जाता है| और ऐसा क्यो न न् हो? मृत शरीर रूपी खाली सूत की नली अब जुलाहे के किस काम की रह् जाती है| वह नली सूत मे (अपने निर्माणकारी तत्वों) मे  उलझी हूई पड़ी रह्ती है अर्थात पचतत्वो के विषय-भोग के लिए अनुपयोगी निर्जीव शरीर उलझे हुए सूत की भाँति पड़ा रह्ता है| कबीर दास समझाकर कहते हैं कि हे जीव। तू इस प्रपच को छोड़ और हे पागल, तू राम नाम का स्मरण कर|
 अलंकार --(|)स्पकातिशयोक्ति--सम्पूर्ण पद|
          (||) वृत्यनुप्रास-जग जीते जाइ जुलाहा, गज की आव्रत्ति,
           (|||) सवधातिशयोक्ति-तुलह-मापी|
 विशेष---(|)'निर्वेद' संचारी भाव की मार्मिक व्यजना है|

(||) नौ==नवद्वार| (|||) दस गज-पाँच ज्ञानेंन्द्रियाँ(श्रवण,त्वचा,नेत्र,नामिका और रसना) तथा पाँच क्रमक्रिया- हाथ,पैर,मुह,गुदा और उपस्थ| (|v)उश्रोग- टिप्पणी संख्या(||) तथा (|||) के योग करने से १६ आजाने है| (v)भाव-लुप्त धातु- रंग , रख्त,मांस,वना,मज्जा ,आरिया तथा शुक्र| (v|)विचारवान ने भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये हैं, परंतु उनके पदो में प्रतिकार्य भिन हैं| क्या- पद=यानी नौ गज=नौ नवद्वार उपयोग गज=पुनय नया महाभारत| गान=जाव्रत, महदाया;