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ग्रॅंन्यावली] [६०३

भी यह माया अनेक प्रकार से घेरती है| कबीरदास कहते है कि हे प्रभु तुम्हारी माया की लीला बडी टेढी है| वह कुछ भी समझ मे नही आती हे|

   अलंकार-(१) पदमैत्री--सबल--निबल|
         (२)छेकानुप्रास--बुधि बल, घर घरनी|
         (३)सम्बन्धातिशयोक्ति-- कछू न बसाई, तेऊ न आए छूटे|
         (४)वृत्यानुप्रास-- सती, सिध्द, साधक, बहुत विगूते, विषय वाघ|
         (५)रूपक--विषय वाघ|

विषय-- (१) कबीरदस माया एव उसके सहयोगियो--इन्द्रियो के सम्मुख अपनी निर्बलता स्वीकार करते है|

      (२) कबीर भक्तों की भाँति अपने उध्दार का उपाय केवल प्रभु की कृपा मे देखते हैं-- "जाऊँ कहाँ तजि चरण तिहारे," इत्यादि भाव से प्रभु के दरबार मे ही पडे रहना चाहते है| राम का गुलाम कहलाकर भी यदि उध्दार न हुआ, तो इसमे भक्त का कुछ भी न बिगडेगा| इसमे भक्त की बदनामी होगी| 
         यह बस मास दास तुलसी कहुँ नामहुँ पाप न जारो|
    (३)यह पद वस्तुत कबीर की विनयोत्कि है | यह विनय का है | कबिर यदि प्रभु की माया के रहस्य को नही जान सके हैं, तो इसका कारण माया की जटिलता नही है, इसमे उनका कोई दोप नही है | अत. उनका अपराध क्षम्य है|
                    (१६३)
माधौ चले बुनांवन माहा,
 जग जीतै जाइ जुलाहा|| टके||

नव गज दस गज गज उगनींसा, पुरिया एक तनाई | सान सूत दे गंड बहतरि, पाट लगी अधिकाई || तुलह न तोली गज गजह न मापी, पहजन लेर अढ़ाई| अढाई मै जे पाव घटै तो, करकस क्रै बजहाई|| दिन को बैठि खसम सू कीजै, अरज लगो तहां हो| भागी पुरिया घर ही छाडों, चले जुलाह रिसाई || छोछो नलीं कांमि नही आवै, लहटि रहो उरझाई| छांड़ि पसारा रांम कहि बौरे, कहै कबीर समझाई ||

शब्दार्थ--माहा== माया| नो== नव द्वार | दस गज= दस इन्द्रियाँ | उगनीसा= उन्नोसा| पुरिया== पुरी,साडो| सात सूत== सप्त घातु | गड बहतर== बहतर गण्डे==७२x५==३६० | पाट ==पाटरपाण, कलफ | पहजन= पवज्ज्ण,स्वीकार करने को| दरकस==ककंशा, भ्कगडालू स्न्नी| यजहाई== बजाघात|रिसाई== रुष्ट होकर | छोछी नली== खाली नली| पसारा== प्रपच |