पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३०५

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= वह ज्ञान और भक्ति के समन्वय से उत्पन्न प्रेम के महारस का पान करने । वनता है और कायायोग एवं ध्यान योग द्वारा प्राप्त होने वाले अमृत का? करता है । वह ज्ञान की अग्नि में शरीर को जलाने वाली वासनाओ को भले कर देता है तथा अजपा जाप (अनहद नाद) मे लवलीन रहता है । वह जब विमुख होकर चेतना को त्रिकुटी में स्थित कर देता है और इस प्रकार समा हो जाता है । सहज समाधि में स्थित होकर वह समस्त विषयो को त्याग देता। वह इडा, पिंगला एव सुषुम्ना के मिलन-विन्दु रूप त्रिवेणी मे अवगाहन करत तथा आनन्द की विभूति को अपने अन्त करण मे रमाकर मन को वासना रहित करके पवित्र करता है । कबीर अलख निरंजन प्रभु की भक्ति करता है। अलंकार--(1) रूपक-महारस अमृत, ब्रह्म अग्नि, त्रिवेणी विभूति ।। (11) विरोधाभास--अजपा जाप ।। विशेष—(1) भक्तो की भाँति कबीरदास निर्गुण बृह्म की भक्ति में और सेव्य-सेवक भाव का आरोप करते है । (1) कायायोग, ज्ञान एव भक्ति की त्रिवेणी दृष्टव्य है । (iii) अमृत-देखें टिप्पणी पद स० ४। अजपा जाप-देखे टिप्पी पद स० १५७ उन्मनी- देखें टिप्पणी पद स ० २०३ त्रिकुटी–देखे टिप्पणी पद स० ४ अलख निरंजन-देख टिप्पणी पद स० १४२ व १६० सहज समाधि-देखे टिप्पणी पद स० ७ । (iv) त्रिवेणी- देखे टिप्पणी पद १० ४, ७ (v) इम पद मे कायायोग और भक्ति का सुन्दर समन्वय है । | ( २०५ ) या जोगिया की जुगति जु वूझै, राम रमे ताक त्रिभुवन सूझे ।। टेक ।।। प्रगट कथा गुपत अधारी, तामै मृरति जीवनि प्यारी ॥ है प्रभु नेर खोज इरि, ग्यान गुफा में सींगी पूरि ॥ अमर वेलि जो छिन छिन पीवै, कहै कबीर सो जुगिजुगि जोवे । शब्दार्थ- कूया = दटी । या धानी==यो । अधार= " नप दी । ने= पाश । गीगी : भृगी, योगियों द्वारा प्रयुक्त मार्ग में मनि =ज्ञानपी वैलि ।। मंदर्भ-गावीन्दाम पायायोग पी महिमा का वर्णन र रते हैं। भाया--- । पायोग की नवना १२ वाले ५ है या १ २ २ २॥रर ने 1, ३ र रन 7) में । उनि नो गोपः दिग; ३३ नग 1 7 3 11{{। 7 77 है।