पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३०७

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अमर वेलि जोवै श्रध्दालु साधक को सर्वत्र श्रेष्ठ बताया गया गया है । तुलना करे-

      योगनामपि सव मदगते नान्तरात्मन ।
      श्र्धावन्मते यो मां स मे युत्त्थ्मो मत ।
                  ( २०६ )
    सो जोगी जाकै मन मै मुद्रा
         राति दिवस न करई निद्रा ॥ टेक ॥
    मन मै आसण मन मै रह्णां, मन का जप तप मन सू' कह्णां ॥
    मन मै षपरा मन मै सीगी, अनहद बेन बजावै रंगी ॥
    पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सो लहसै लंका ॥
    शब्दाथ-मुद्रा = खेचरी मुद्रा । लहसै = विजय प्राप्त करना । पच = पचाग्नि ।
  भुका = शरीर - शारीरिक आवश्यकताएँ ।
    संदभ---कबीर सच्चे योगी का वर्णन करते है ।
    भावार्थ---सच्चा योगी वही है जो कुण्डल आदि बाहरी म्रदाओं को त्याग कर मन मे खेचरी मुद्रा धारण करता है अर्थात जो परम तत्व की प्रात्पि के अनुरूप मन की अवस्थिति वना चेता है । ऐसा साधक योगी रात और दिन कभी भी नही सोता है अर्थात वह सदैव सजग रहता है और कभी भी अज्ञान मे नही फैसता है । वह मन मे ही आसन जमाता है और उसी मे अवस्थित रहता है अर्थात वह आत्म-स्वरूप गे ही अवस्धित हो जाता है । वह मन मे जप-तप करता है । और अपने जप-तप को अपने मन को ही मुनाता है । वह मन मे ही खप्पर (भिक्षा-पात्र) रखता है और मन फी ही श्रृगी वजाता है । ज्ञान भत्ति रुपी महारस का प्रेमी यह योगी अनहद नाद की वीणा अपने मन मे ही वजाता है । कबीरदास कहते है कि जो योगी पंचाग्नि मे शरीर को जलाकर भस्म कर देता है वही लकारुपी ससार पर विजय प्राप्त करता है अर्थात अव्द तावस्था को प्राप्त होता है ।
      अलंकार - अनुप्रास -मन की आवृति (३री पत्ति)।
               पदमँत्री - जप-तप,रहणां कहणा ।
               रुपक - अनहद चेन ।
               रुपकातिशपोत्ति- पच , लंका ।
               लेकानुप्रान - जोगी जाके , पंच , भमम भूका ।
          विशेष - मुढा आनन, खपरा, लोगी, बेन, भमम-ये योगियो की गाछना एवं वेद के 

व हरी उपकरण एवं आचार है ।

          यह पद मे कबीर ने अल माघना और वापाचार का सन्दर गमन्वम किया है।