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ग्रन्थावली } [६४६

कि पाचो तत्वो (पृथ्वी , जल,तेज,वायु और आकाश) ने इस विवाह मण्डल की रचना की थी और तीनो गुणो ने मिलकर इसकी लगन लिखी अथाॆत् गुणो की अभिव्यक्ति के साथ ही दृैत भाव उत्पन्न होगया और मेरा प्रियतम का सम्बन्ध अव्यक्त से व्यक्त होगया । वासना और आशा रुपी सखियो ने मंगल गान किया-- मेरे ससारी बनने पर वासना और आशा को अपनी अभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त होगया--इससे वे आनन्दित हो उठी । उन्होने ही सुख-दु:ख रुपी हल्दी जीवात्मा के शरीर पर चढा दी और उसको संसार मे प्रवृत्त होने के लिए सब तरह तैय्यार कर दिया । अनेक प्रकार के राग-रग ही इस विवाह के भाँवर हैं । सचित-कर्म रुपी बाबा ने ईश्वर-रुप पति की प्राप्ति के लिए गठ बधन कर दिया अथाॆत् यह जन्म दिया। परन्तु पति के वास्तविक सहबास के बिना ही जीवन-रूप सम्पूणॆ सुहाग व्यतीत होगया। चौक पर बैठते ही अथाॆत् विवह के होते ही मैने काम रूपी सगे भाई को पति रूप मे वरण कर लिय । अज्ञानी जीवात्मा ने ईश्वर-रुप अपने पति के वास्तविक दर्शन कभी नही किए ।पर सच्ची भक्ति पर भी अन्य साधनाओ मे फँसी हुई जीवत्मा अपने आपको सनी मानने का दम्भ करती रही। जीवात्मा कहती है कि अब मुझे बोध होगया है।कि अब मै चिता रचकर मरुँगी और पति को साथ लेकर तुरही बजाती हुई भवसागर के पार होजाऊँगी।

       अलंकार----(1) उपमा--सुपने की नाई ।
                (11) रूपक--- सुख-दुख हलदि । 
                (111) साग रुपक ---पच जना---नाई ।

विशेष ---(1) सासरे पीव, पच जना इत्यादि प्रतीको का सफल प्रयोग है।

       (11) सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ही जीवन-स्रृष्टि है । यही

लगन लिखना है।

       (111) जीवन मै व्यष्टि जीव बारम्वार अपने शुध्द स्वरुप मे प्रतिष्ठित होता 

रह्ता है। उस समय उसे आनन्द की अनुभूति होती है। दो वृत्तियो की सधियो मे जीव अपने शुध्द स्वरूप मै प्रतिष्ठित् होने से आनन्द क अनुभव करता है । जी और ईश्वर का यह मिलन ही विवाह है और यही जीवन है। जीवन मे यह आनन्द इन्द्रियो के माध्यम से प्राप्त होता है। यही मण्डप-निर्भाव है।

      (1V) संसार  मे आते ही जं व माया द्वरा आवृत्त होकर ब्रह्म से विलग हो

जाता है। यही जीवत्मा का विधवा हो जाना है।

      (V)जीव-भाव के साथ ही माया के कारण जीवात्मा  मोह और अ               मे फस जाती है। इसी से वह जीवात्मा का भाई है।
      (V1) इस पद मै ज्ञान और प्रेम की अग्नि मे अपने अज्ञान को भस्म करना                                  ही चिता रचकर मरना है तथा ईश्वर के साथ प्रणय एवं तन्मयता के अनुभव को            तुरी बजाकर कत के साथ तिरनी  कहा गया है। सती होने के कारण ही वह स्वय