पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३६०

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ग्रन्यावली ] । ६७५

(दृश्यमान जात) गिर कर समाप्त हो जाएगा और एक मात्र निराकार परम तत्व ही रह जाएगा । (वही शाश्वत सत्य है ।) अलंकार १बहिबबते (1) गूढोक्ति-कपैगा कौण गया । (11) वक्रोक्ति-वगेणब्र कोंण न जासी । (111) रूपक - वाया गढ । ` (1४) उपमा-इन्द्र सरीखे, पादौ सीखी । विशेष---") धु अविचल नहीं २ ह सी--- शास्त्र विरुद्ध कथन होने के कारण यहाँ "दुत्कात्त्व" दोष है । (11) शाकैर व्रह्यवाद-अंव्रह्य सत्य' जगत्यिश्या का प्रतिपादन है । (111) 'राम' के द्वारा 'आत्मा' को सम्बोधित किया गया है है

( २४८ ) तये सेविये नारांइपगं, प्रभू मेरौ दीनदयाल दया करणा ।। टेक । ।

जो तुम्ह पंडित आगम जांणों, विद्या व्याकरणां । संत मत सब ओषदि जाणी, अंति तऊ मरणरै ।। राज पाट रुयंघासग्ना असम, बहु सु बरि रमणी । चदन चीर कपूर विराजत, अंति तऊ मरणां 1। जोगी जती तपी संन्यासी, बहु तीरथ भरमणां । सु चित भु डित मोनि जटाधर, अति तऊ मरणां ।। सोचि बिचारि सबै जग देख्या, कह न ऊबरणां । कहै कबीर सरणाई आयी, भेटि जामन मरगां ।।

शब्दार्थ तार्थ८कै-८ इसलिए । सेविये=सेवा कीजिए । आगम==यरारुत्र । चीरने वस्त्र 1 लु चित८ जिन्होंने अपने बालौ को तोच-नोच कर निकाल दिया है ।

जामनजिन्द्रह जन्म ।

संदर्भ-ति-कबीर दृश्यमान जगत की नश्वरता का वर्णन करते है ।

रे मानव : नारायण की सेवा इसलिए करनी चाहिए क्योंकि वे प्रभु दीनो पर दयालु है तथा दया एव करुणा करने वाले हैं । तुम भले ही पडित हो, शाइवो के ज्ञाता हो, विद्या व्याकरण जानते हो, तन्त्र-मंत्र एव सम्पूर्ण आयुर्वेद का तुम्हे ज्ञान है, परन्तु फिर भी तुम्हे अन्त से मरना ही है । तुम्हारे राज-पाट है, तुम सिंहासन पर विराजती हो, अनेक सुन्दरियों के साथ रमण करते हो, चदन और कपूर से चचिंत वस्ती से सुशोभित होते हो, तब भी तुम्हे अत में मरना ही है । चाहे कोई योगी है, पति है, तपस्वी है, सन्यासी हैं, अनेक तीर्थों में भ्रमण किया हुआ व्यक्ति है, लु चित मुदित, मौनी, जटाधारी किसी भी प्रकार का साधु है, पर अतत. उसको भी मरना है । कबीर कहते हैं कि मैंने सोच समभक्तर सारा ससार हूँढ़ लिया है,