पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३६१

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६७६] [क्बीर पन्न्तु है से बिनी पाकर नही वचा जा सकता है । अत हे भगवन् है मैं तुम्हारी ष२ण म आया हूँ । जन्म-मरण के चक्र से मेरी रक्षा करो|

                        (२४९)
         पांडे न करसिं बाद विवाद,
            या देही विन सबद न स्वाद || टेक ||
        अंड क्षहांड खड भी माटी, माटी नवनिधि काया|
        भाटी खोलन सतगुर भेटचा, तिन कछू अलख लखाया ||
        जीवत माटी सूवा भी माटी, देखों नंयांन बिचारी|
        अति कालि माटी मे वासा, लेटे पांव पसारी||
        माटी काचित्र पवन का यंभा, व्यद संजोगि उपाया|
        भांनै घडे सवारे सोई यहु गोव्यद की माया||
        माटी का मन्दिर ग्यान का दीपक, पवन बाति उजियारा|
        तिहि उजियारे सव जग सूझे, कबीर ग्वांन बिचारा ||
    इ।टदार्थ-थभा= स्तम्भ, खम्भा, सहारा । व्यंद र्थावेदु, वीर्य 1 मानै हैड-ब- टूटे हए । यती-कि-द्वा-यती । उजियारा = प्रकाशित है|
   संदर्न - कबीरदाम ससार की असारता का वर्णन करते हैं |
   भावार्थ- कबीर कहते है कि अरे पण्डित | तुम बाद-विवाद (शास्त्रार्थ) मतकरो | टन शरीर के विना न शठद रह जाएगा और न स्वाद रह जाएगा-न तो माम्मार्य ही चंह जाएगा और न शाष्टत्रार्थ का प्रानन्द ही रह जाएगा | तुम्हारा घाम्भठर्य तो अवलम्नित ईट शरीर और शरीर की दिथति यह है कि यह समष्टि जगत और इन विश्व का प्रत्येक अण-सभी कुछ मिट्टी है । यह नवनिधिपी को भोगने वाना शरीर भी मिट्टी ही है । ठगी मिट्टी के मगार मे खोल्ते-मौजते (विभिम्न नाघनावो मे भटकते हुए) गदूमुरु ने मेरी भेट हो गई । उन्होंने मुक्भफे उस अलक्ष्य परम तत्व का दुइ मान पग दिया । रे मानव तू ज्ञान पूर्वक मनन करके देख याइ दागे मोबिन अगाथा ने भी गिट्टी है और मरने पर भी मिट्टी है| इस शरीर की टन्मनं मिट्टी वी मिन धाना पटवा है और अम्म ममय ये यह जीव जमीन पर (गिट्टी ने) पैदृ कैना श्ननैट आता वै । यह शरीर मिट्टी का ही पृतला है और  प्रान चानु ना अपार आभा है तथा केवल धीयै रज की बूटो के मयोग गे पर उपन्न दिया गया है। भगवान् की लीला है की यही घटे-भ्भी शरीरों को नृष्ट कर दिया है|
       अनमबीर - (१) ऐगाप्राव - पर दिवाद, गवर ग्वाद|
                 (२) परमशै - प्र्र प्रयति नष्ट | भृवा माटी ||