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ग्रन्थावली ] [ ६७६
कुछ जूठा है , तो हे अभोग जीव , अब तो चैत कर। अन्न और पानी सब जूठे हैं और इनको पकाने वाले जूठे हैं। जूठी कडछी से यह अन्न परोसा गया है। खाने वाला भी जूठा है और जिस गोबर से इस चौके की जूठन उतारी गई हे वह गोबर भी जूठा है । इस चौके मे जो लीक लगाइ गई है , वह भी जूठी है । इस प्रकार सम्पूर्ण संसार मे जूठन का ही अधिकार है । कबीरदास कह्ते हैं कि वे ही व्यक्ति पवित्र हैं जो भगवान का भजन करके अपने ह्र्दय के सम्पूर्ण विकरो का त्याग कर देते हैं। अलकार - (१) गूढोक्ति - कवन ठाउ ? (२) 'जूठा' शब्द की पुनरावृति के कारण अनुप्रास एव पदमौत्री की छटा हषटव्य है । विशेष - (१) संसार का कोई भी स्थान , कोई भी व्यक्ति एव इस्की कोई भी वस्तु नितान्त नवीन एव अछूती नही है । सभी कुछ उच्छिषट एव मुक्त है। जीव भी शुद्ध चैतन्य नही है वह भी माया द्वारा आवृत है। जीव विपयो से मुक्त हे ही । विषयो का भोग अनादि काल से हो रहा है । अत वे जूठे है । उन्ही विपयो के सस्कार मन मे हैं , उन्ही का भोग मन करता है । अत मन 'जूठन' का भोग करता है । इस प्रकार कबीर ने 'सर्व उच्छिषटम' की भावना को जगाकर जगत के प्रति वैराग्य' का प्रतिपादन किया है। (२) भगवान का भक्त विषयो का स्पर्श नही करता है । अत वह 'जूठन'से बच जाता है । अपने स्वरूप मे प्रतिश्ठिन भक्त ही 'जूठन' के भाव से बच सकता है । (३) वैरग्य के साथ वाह्यचार के प्रति निरर्थकता के भाव को भी जगाना इस पद का उद्देश्य प्रतीत होता है। (२५२) हरि बिन भूठे सब ब्यौहार , केते कोऊ करौ गँवार ॥ तेक ॥ भूठा जप तप भूठा ग्यांन , रांम बिन भूठा ध्यांन । बिधि नखेद पूजा आचार , सब दरिया मै वार न पार । इंद्री स्वारथ मन के स्वाद , जहाँ साँच तहाँ मांडै बाद ॥ दास कबीर रह्या ल्यौ लाइ , भर्म कर्म सब दिये बहाय ॥ शब्दार्थ - गँवार = अग्यनि, मूर्ख । नखेद = निषेध विधि = शास्त्र जिन कामो को करने का आदेश देता है । निषेद = शास्त्र मे जिन कामो की मनाई है । मांंडै = सजोते हैं । दरिया = नदी । सन्दर्भ - कबीरदास वाह्याचार का विरोध करते हैं । भावार्थ - भगवान की भक्ति के बिना समस्त सांसारिक व्यव्हार भूठे (व्यर्थ) हैं। अग्यनी व्यक्ति उन्के प्रति चाहे जितने आसक्त क्यो न