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७४३ ] [कबीर

    जीवन व्यर्थ ही व्यतीत कर दिया है । सुन्दरी नारी रूपी सौप ने मेरे शरीर और 
    मन को डस लिया है और  काम रूपी विप की लहर ऐसी फैल रही  है  कि
    उसका कोई आदी अन्त (ओर छोर)नही है। उप विप को दूर  करने वाला कोई
    भी गुरू रूप गारूडी अब तक नही मिल सका है।यह भयानक विप मेरे शरीर मे
    फैल गया है।कबीर कहते है की मैं दुख का वर्णन किससे करूँ। मेरे इस दुख को
    कोई नही जानता है, हे भगवान  मेरे नमस्त अवजुणो को दूर करके मुभ्के आने
    दर्शन दीजिए ।तभी मेरा मन सुख -शाती का अनुभव कर सकेगा ।
       अलंकार -(I)रूपक -भुजग भामिनी ,गुर गारडू ।
          (II)छेकानुप्रास -काम क्रोध ।
          (III)रूपकातिशयोक्ति-चोर,लहरी,विष 
       विशेष-(i)इसे हम विनय का पद कह सकते है ।
          तुलना करे-
       नाचत ही निस दिवस मरयो ।
          तब ही तौ न भयो हरि । थिर जब ते जिब नाम घरयो ।
          जोहि गुन ते होहू रीभ्ति कोई, सो मोही सब  विसरयो ।
          तुलसीदास निज भवन -ध्दार प्रभु,  दोजे रहन  परयौ । 
                                      (गोस्वमी तुलसीदास)
                      (३०६)
          मै जनभूला तू समझाइ
             चित चचल रहै न अटक्यौ,विषै बन कू जाई॥ टेक॥
             ससार सागर मांही भूल्यौ , थक्यौ  करत  उपाई ।
             मोहनी माया बाघनी थे , राखि  ले  रांम  राइ ॥
             गोपाल सुनी एक बोनती , सुमति  तन  ठहराइ  ,
             कहै कबीर सुनि यहु कांम रिप है, मारै सबकुं ढाइ॥
         शब्दार्थ-वाघनी=शोरनी । राखि लै=रक्षा करो।
         सदर्भ-कबीर भगवान से रक्षा की प्रार्थना करते है।
        भावार्थ-हे भगवान । मैं तेरा यह सेवक माया-मोह मे पडकर श्रपने स्वरूप 
    को मूल गया हूँ । तुम मुभ्के विवेक-व्रुध्दि दो।यह मेरा चचल चिन्त तुभ्तसे अटाकता
    नहीं है अथर्ति तेरे प्रति अनुरत्क नही होता है ओर वह बार-बार विपय - रूपी  वन
    की ओर भा-कर जाता है।मै डम ससार रूपी  सागर मे  भटाक  गया  हूँ । उध्दार
    की चेप्टा करते करते  थक गया हूँ । हे राजा राम । मोहिनी  माया  रूपी  वाधिन
    से भेगी रक्षा कीजिए । हे गोपाल , मेरी एक  विनती  सुन  लीजिए । मेरे मन मे
    मुबुध्दि को मियर कर दो अथवा मुभ्कको स्थिर बुध्दि प्रदान कर दो कबीर कहते हैं