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७८२ ] [ कबीर

(1i) समभाव के लिए देखें---- मैं अरु मोर तोर तै माया । जेहिं वस कीन्हें जीव निकाया । गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सव माया जानेहु भाई । तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । विद्या अपर अविद्या दोऊ । एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भव कूपा । एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नही निज वल ताकें है ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देखत व्रह्य समान सव माहीं । x x x

     माया ईस न कहुँ जान-कहिअ सो जीव ।
     वंघ मोच्छ् प्रद सर्व पर मत्या प्रेरक सीव ।
                                  (गोस्वामी तुलसीदास)
             ( ३३८ )

एक निरंजन अलह मेरा,

   हिंदू तुरक दहूँ नही मेरा ।।टेक॥

राखु ब्रत न महरम जांनां, तिसही सुमिरू जो रहै निदांना । पूजा करूं न निमाज गुजरूं, एक निराकार हिरदै नमसकारू ।। नां हल जांऊं न तीरथ पुजां, एक पिछांण्या ताै का दूजा ।। कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूँ मन लागा ॥ शब्दाथ॔- निदान=अत मे । पिछाण्या= पहचान लिया । नेरा=पास । सन्दर्भ-कबीर परम तत्व निरजन के प्रति अनुरक्त होने का उपदेश देते हैं । भावार्थ-मेरी निष्ठा तो एकमात्र मायारहित अल्लाह (परमात्मा) में है । हिन्दू और मुसलमान दोनों मे कोई भी उसके निकट नहीं पहुँच पाए है । अथवा इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि मुझे हिन्दू अथवा मुसलमान किसी भी सम्प्रदाय से कोई वास्ता नहीं है । में न व्रत रखता हूँ और न में मुहरेंम में विश्वास रखता हूँ । मैं तो केवल उसका स्मरण करता हूँ जो एकमात्र सत्य होने से अन्तत अवशिष्ट रह जाता है । अर्थात् जो माया एव उसके सम्पूर्ण प्रपच के लुप्त हो जाने के पश्चात् अवशिष्ट रह जाता है । मे न किसी देवता की पूजा करता हु और न मसजिद से जाकर नमाज ही पढता हूँ । मैं तो एक मान निराकार परमात्मा को हृदय मे धारण करके नमस्कार करता हूँ 1 न मैं हज (मक्का) जाता हूँ और न तीर्थों में जाकर पूजा ही करता हूँ । अब मैंने तो एक परम तत्त्व को पहचान लिया है, तव फिर अन्य किसी देवता अथवा किसमें साधना की नपा आवश्यकता है ? कबीरदास कहते है कि मेरे समस्त भ्रम नष्ट हो गये हैं और एक मात्र तत्त्व निरंजन में मेरा हृदय रम गया है ।

अलकार---वक्रोक्ति---एका "क्या दूजा?