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८०६] [कबीर

 (iv) पाप-पुनि दरवाजे- वृत्तियाँ पाप पुण्य रूप हैं, अता. उनके ये दो दरवाजे हैं।
 (v) क्रोध-प्रधान- "कामात् सजायते क्रोध," के अनुसार इच्छा की आपूर्ति क्रोध का हेतु है। अधिकाश इच्छाएँ पूरी हो पाती है। इसी से क्रोध की प्राधानता कही है।
 (vi) स्वाद सनाह - जीव इन्द्रियो के स्वाद द्वारा सदैव वशीभूत बना रहता हैं। फलस्वरूप आत्म-हित की बातो का उस पर कोई प्रभाव नही पडता हैं। उप-देश के तीर स्वाद के कवच को पार नही कर पाते हैं।
 (vii)रोप-ममता - मानव का अह राग द्वेष से इतना घिर जाता है कि उसके मस्तिष्क मे विवेक की बात प्रवेश ही नही कर पाती है। 'अह' व्यक्ति का शिरो भाग है। इसकी रक्षा 'ममत्व' करता है। इसी से 'ममता' रूपी शिरस्त्राण कहा है।
 (viii) एके चोढ ढहाया- स्वरूप-स्थिति के कारण देहाघ्यास छूट जाता है। यह अघ्यास ही शरीर की जड है। अध्यास का नष्ट होना ही शरीर रूपी किले का ढह जाना है।
(ix)'नालिकर' के स्थान पर हवाई' पाठान्तर है। डा. माताप्रसाद गुप्त ने 'हवाई' को ही ठीक माना हैं।उनका कहना है कि, नालें कबीर के मरण-नातर बाबर के साथ आई थी। ' हवाई' गोलो को फेंकने का एक यन्त्र होता था, जिसका उल्लेख इतिहास मे नालो के प्रचलन के पूर्व पयाप्त मात्रा मे मिलता हैं।"
 सुरति देखें टिप्प्णी पद स. १३२ ।
                           (३६०)

रैनि गई मति दिन भी जाइ,

     भवर उडे बग बॅठें आइ॥टेक। 

कांचै करबै रहॅ न पानी,ह्ंस उडना काया कुमिलांनीं॥ थरहर थरहर कपै जीव, नां जानूं का करिहै पीव॥ कऊआ उडा रत मेरी बहियां पिरानीं, कहै कबीर मेरी कथा सिरानीं॥ श्ब्दार्थ- रैनि= रात्रि, युवाव्स्था। दिन= वृध्दावस्था। बग= बगुला। करवै= मिट्टी का छोटा बर्तन करुआ। हस=बोध। सिरोनी= समाप्त हुई। सदर्भ-कबीरदास जीवात्मा रूपी पत्नी की परमात्मा रूपी पति से मिलन से पूर्व की मन स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। उसका वर्णन एक एसी नवोढा के रूप मे किया गया है जो प्रथम समागन भय के कारण प्रिय-मिलन मे सकोच करती है। भावार्थ- यौवन रूपी स्त्री तो पति के वास्तविक स्वरूप के अज्ञान मे व्य्तीत हो गई। जब परिपचवावस्था रूपी बुढापा भी इसी प्रकार व्यतीत न हो जाए। युवावस्था रूपी रानि के प्रतीक काले बाले गापी भौरे तो उट गए है और वृदावग्या दिन के आगमन की सूचना देने वाले पर्वत केश रूपी बगुले