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बिगत मान,सम सतिल मन,पर गुन नहि दोस कहौगो| परिहरि देह-जनित चिंता,दुख-सुख समबुद्धि सहौगो| तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि,अविचल हरि भक्ति लहौगो| (गोस्वामी तुलसीदास) (३६४) माधौ सो न मिले जासौ मिलि रहिये, ता कारनि वर कहु दुख सहिये||टेके|| छत्रधार देखत ढहि जाइ,अधिक गरब थे खाक मिलाइ|| अगम अगोचर लखी न जाइ,जहॉ का सहज फिर तहा समाइ|| कहै कबीर झुटे अभिमान सो तुम्ह एक समान|| श्ब्दार्थ-- सो ==सः,आत्मा अथवा परमतत्व।छत्रथार==छत्रधारण करने वाला राजा। ढरि जाइ==नष्ट हो जाता है। सन्दर्भ--कबीरदास जीवन की नश्व्ररता का व्र्णन करते है| भावार्थ--हे माधव,वह परम तत्व नही होता है जिससे तदाकार होकर रहना चाहिए,भले ही उसको प्राप्त करने के लिए साधक को बहुत से दु:ख सहने पडे। छत्र धारण करने वाले राजा देखते ही देखते नष्ट हो जाते है। अधिक अभिमान के कारण व्यक्ति मिट्टी मे मिल जाते है|उस परम तत्व को प्राप्त करना अत्यन्त कटिन है,वह इन्द्रिय गभ्य नही है तथा उसको इन स्थुल नेत्रो द्वारा देखा भी नही जा सकता है|उसमे आत्मा का सहज स्वरुप जहा का तहॉ समाहित हो जाता है|कबीर कहते है कि बडप्पन का अभिमान सर्वथा मिथ्था है|हम और तुम सब् एक ही तत्व है और परस्पर समान है| विशेष--(१)संसार की नशवरता का वर्णन है| (११)निर्वेद संचारि की व्यंजना है| (१११)एकत्व का प्रतिपादन है|व्यक्ति व्यक्ति की समानता तथा जीव और ब्रम्हा की एकता का प्रतिपादन है| (३६५) अहो मेरे गोब्यंद तुम्हारा जोर, काजी वकिवा हस्ती तोर||टक|| वांधि भुजा भले करि डारचौ,हस्ती कोपि मूंड मै मारचौ|| भाग्यौ हस्ती चोसां मारी,वा मूरति की मै बलिहारी|| महावत तोकू मारौ साटी,इसहि मरांऊं घालौ काटी|| हस्ती न तोर घर घियांन,वाके हिरदे वसे भगवांन|| कहा अपराध संत हौ कीन्हां,वांधि पोट कुंजर फू दीन्हा|| कुंजर पोट वहु वंदन फरै,अजहू न सूझै काजी अंधरे||