पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५०२

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के वशीभूत होकर चाहे जहां चला जाता है वह गम्य अगम्य प्रत्येक स्थल पर चला

  जाता है।
      अलंकार- (i) रुपक--मन पतग, चित च चला।
             (ii) उपमा==जल अजुरी समान,
             (iii) रुपकातिशयोक्ति--आगि, सापनि।
      विशेष--'निर्वेद' सचारी की व्यजना।
                (३६६)
 स्वादि पतंग जरै जर जाइ,
      अनहद सौ मेरौ चित्त न रहाइ ||टेक||
  माया कै मदि  चेति न देख्या, दुबिध्या मांहि एक नहीं पेख्यां॥
  भेष अनेक किया बहु कीन्हां, अकल पुरिष एक नहीं चीन्हां॥
  केते एक मुये मरहिगे केते, केतेक मुगघ अजहू नहीं चेते॥
  तंत मंत सब ओषद माया, केवल राम कबीर दिढाया॥
     शब्दार्थ---मदि==मद,नशा। पेख्या==देखा। अकल==अखडित। मुगघ==
 मूखं। दिढाया=हढ किया।
     सन्दर्भ---कबीर का कहना है कि अजान के विषयासक्ति मे 
 नष्ट हो रहे हैं|
     भावार्थ- विषयासत्क मेरा मन रूपी पतंग अनवरत रूप से विषयाग्नि मे 
 जलता है। अनह्द नाद मे मेरा चित  नही लगता है--अर्थात मेरा मन विषयो से
 परड्मुख होकर अन्तमुखी नही होता है। माया के मद से छुटकारा पाकर
 मैने असली तत्व को  नही समझ पाया है। ज्ञान जनित दुविधा एवं द्वैत- 
 भावना मे पड कर मै सर्वव्यापी एक (परम)तत्व का साक्षात्कार नही कर
 पाया |मैने विषयासक्ति के वशीभूत होने के फलस्वरूप अनेकानेक जन्म धारण किए,
 परन्तु में उस एक अखण्ड अविनाशी परमपुरुष परमातमा को नही देख पया |
 इस संसार चऋ मे कितने ही मर गये और न मालूम कितने और मरेंगे ,इतना 
 सब कुछ देख कर भी कितने ही मूखं अब भी होश भी मे नही आ रहे है |तत्र-मन्त्र
औषधि आदि सभी माया (धोखा अथवा नश्वर) हैं|इसी से मैंने अपने उध्वार के
 लिए अपना मत केवल राम की भक्ति मे हढता पूचंक लगा दिया है|  
    अलंकार ---(i)रूपक--स्वादि पतंग |
            (ii)व्रुत्यानुप्रास--जरे जरि जाइ|
            (iii)गूढोक्ति--मरहिगे केते|
    विशेष--- (i)अनहद' देखें टिप्पणी पद स० १६४|
     (ii)विषयों से विरक्त होने से ही कल्याण सम्भव है|