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यनवली ] [८१९

   जहाँ जहाँ जाइ तहां सच पावै,माया ताहि न झोलै।
   बारंबार बरजि विषिया तै,लै नर जौ मन तौल॥
   ऐसी जे उपजै या जीय कै,कुटिल गांठि सब खोलै।
   कहै कबीर जब मन परचौ भयौ,रहै राँम कैै बोलै॥
     शब्दार्थ-डोलै=विचलित हो। सच=सुख। फोलै=जलाती है। सताती

है । तोलै=सथमित करता है। रहे=आचरण करता है। बोलै=आदेशानुसार।

     सन्दभं-कबाीर कहते है कि सच्चा भक्त है जो राम के आदेशानुसार

आचरण करे।

      भावार्थ-जिसका हृदय भगवान के चरणो मे लगा हुआ है,उसका मन

चचमल नही होता है। उसे तो आठो सिद्धियाँ आैर नवो निगघियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती है आैर वह व्यक्ति हषित हो-हो कर प्रभु का गुणगान करना है। वह जहाँ भी जाता है। वहाँ अमित सुख-शाति का लाभ प्राप्त करता है। माया उसको सता नही पाती है। जिस व्यक्ति के हृदय मे ऐसी -ध्दा-भक्ति उत्पन्न हो जाती है कि वह विषयों से अपने मन को बारम्बार थिमुख करके जो अपने मन को नियत्रित करकेे प्रभु भक्ति मे लगा देता है,वह माया जन्य समस्त जटिल गुत्थियो को सहज ही सुलफाने मे समर्थ होता है। कबीर कहते है कि जब इस प्रभु-प्रेम से मन का परिचय हो जाता है,तब वह राम के आदेशानुसार ही आचरण करता है।

      अलंकार-(I) पुनरुक्ति प्रकाश-जहाँ जहाँ।
             (II) अनुप्रास-बारबार बरजि विषया।
       विशेष-(I)ससार से विमुख होकर प्रभु के नाम पर समस्त कार्थ करना,

स्वार्थ त्याग कर पारमाथिक व्यवहार करना ही राम के आदेशानुसार आजरण करना है। गोस्विमी तुलसीदास ने भी 'विनय पत्रिका' मे कहा है कि-

        तुम अपनायो तब जानिहो जब मन फिरि परिहै।

जेहि स्वभाव विषयनि लग्यो तेहि सहज नाथ सों नेह छंड़ि छल करि है।

         (II)आठ सिघ्दि,नव निधि-देखें टिप्पणी पद सं १२३।
         (III)जब भक्त का मन पुणंत सयमित हो जाता है तभी भक्ति एक प्रम हढ होते है। सच्चे भक्त का यही लक्शण है।
          (IV)कबीर के राम दशरथि सगुण व्रह्म है।

वह पुकार कर कह चुके है-

     वशरथ सुत तिहेु लोक बखाना। राम-नाम का मरम न जाना।
                   (३७३)
       जंगल मै का सोव्नां,आैघट है घाटा॥
       स्य्ंअघ वाघ गज प्रजलै,अरु लबो बाटा॥टेका॥
       निस बासुरि पेड़ पड़ै,जमदांनो लूटै।
       सूर घीर साचैमतै, सोई जन छूटै॥