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[कबीर
 

बार-बार आना पड्ता है। उससे मुक्ति प्राप्त करने के लिए हे जीव। तू भगवन्नाम का अभ्यास कर।यह सन्सार का जीवन तो जल की तरह के समान क्षणिक है। इसके क्षणिक सुख के पीछे तुम अनेक साधु-सन्तो की सङ्ति मे उपलब्ध ज्ञान-चर्चा की उपेक्षा क्यो करते हो? भक्ति से रहित जीव का कीवन वास्तव मे कुछ नही है। वह तो उत्प्न्न होता है और फिर नश्ट हो जाता है।(वह अनेक बार जन्म लेता है और मरता है-बस इसी ऋम मे फ्सा रहता है।)हे जीव,तुम भले ही अनेक आश्र्मो (व्रहाचर्य,गृहस्थ,वान्प्रस्थ तथा सन्यास) का पालन करो, परन्तु भगवान राम की भक्ति के विना तूम्हारी कोइ रक्षा नही करेगा।

अलंकार- (१) रुपक-उदर-कूप।

(२) उपमा-जैसे लहरि तरङा।

(३) विशेषोक्ति की व्यजना-आश्र्म कोइ न करै प्रतिपाल।

विशेश- (१) निर्वेद सचारी की व्यजना है।

(२) ज्ञान-भक्ति के प्रकाश को न देख सकने वाले प्राणी को 'चु घा' कहकर कबीर ने अज्ञानी के स्वरुप को मूर्तिमत्ता प्रदान कर दी है।

(७)

सोई उपाव करि यहु दुख जाई, ए सब परहरि बिसै सगाई॥ माया मोह जरै जग आगी,ता सगि जरसि कवन रस लागी। त्राहि श्राहि करि हरी पुकारा,साघ सगति मिलि करहु विचारा॥ रे रे जीवन नही बिश्रामा,सब दुख खंडन राम को नामा। राम नाम सांसार मै सारा,राम नाम भो तारन हारा॥ सुम्त्रित वेद सबै सुनै,नही आवै कृत काज। नही जैसे कु डिल बनित मुख मुख सोभित बिन राज॥

शव्दार्थ-सगाई=समवन्ध। भो=संसार। सुमित्रा=स्मृति,धर्मशास्त्र।

सन्दर्भ--पूर्व रमणी के समान।

भावार्थ-रे जीव,तुमको वही उपाय करना चहिए जिससे यह संसार का (आवागमन का) दुख दूर हो। इन समस्त बिपयो (भोगेच्छाओं) तथा सांसारिक सम्बन्धो को त्याग दो। यह सारा संसार माया-मोह की आग मे जल रहा है। तुम किस आनंद के लोभ मे फसकर इस विप्याग्नि के माथ जलना चाहते हो? हे जीव,दीनतापूर्वक भगवान से रक्षा की पुकार करो तथा साधुओ की सझति मे बैठ्कर उस परम तत्व का चितन करो। है जीव, कही अन्यत्र सुख-शांति नही मिलेगी। भगवान राम का नाम ही नमस्त दुम्वो को मेटने वाला है। राम नाम ही मसार मे नार वस्तु है और यही भगवान से पार करने का साधन है। घंशास्त्र,वेद आदि सब सुन लो,परन्तु इनमे कोइ भी पुष्य-साय नही होता है अर्थातू ये सब (राम-भपित के अवाद मे)व्यर्थ ही रहते है,जैसे कुण्डल आदि आभूषणों से युक्त नारी का मुख सौभाग्य-चिन्ह के अभाव मे सुशोभित नही होता है।