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[कबीर
 

उनके बारे मे कोइ कुछ नही कह सकता है। उसके बारे मे जो लोग भी बात करते है,वे सब झूठे और अहंकारी है।

अलकार-- (१) सभंग पद यमक -झूठनि झूठ।

(२) विरोधाभास - झूठनि-साच जाना।

(३) पदमैत्री - धंध वध।

(४) वकोक्ति - को जानै। और को जानै। कथै को जानै।

(५) विशेशोक्ति - तप तोरथ नही सूझै। क्यचित आना

(६) पुनरुक्ति प्रकाश- करि करि। फिरत फिरत ।

(७) उपमा - रजनी अधकूप है। फल कर कीट।

(८) सागरुपक - वर्षा का रुपक- दादुर अधियारा

(९) वीप्सा - याहि याहि, राखि राखि।

(१०) सवधातिशयोक्ति - गण न पावा

(११) रुपकातिशयोक्ति - खग।

विशेष- (१) षट् दरशन न्याय,साख्य,योग पूर्व मीमासा उत्तर मीमासा और वैशेपिक।

(२) आश्रम षट - आश्रमो की संख्या चार ही मानी जाती है। षट् आश्र्म से क्या तात्पर्य है - कह नही सकते।

(३) षट् रस - मधुर,अम्ल,लवण, कटु, कषाय और तिक्त।

(४) चार वेद -ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

(५) छ्ःशास्त्र - धर्म, दर्शन, साहित्य, विज्ञान, व्याकरण तथा कला सम्बन्धी ग्र्थ।

(६) भगवान का विवेचन -कथन-श्र्वण-मनन का विषय नही है। वह सर्वथा अनुभूति गम्य है।

(७)हरि चरित- इस कथन के द्वारा ऐसा लगता है कि कबीर को परब्र्ह्म मानते है। आगे चल कर वह इहि बाजी सिव विरचि भुलाना कहते हैं। यहां भी विष्णु का उल्लेख नही होता है। सम्भवत कबीर राम को विष्णु का अवतार मानते हैं। गोस्वमी तुलसीदास ने भी लिखा है कि-

तासु तेज समांन प्र्भु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन।

विष्णु रुप राम उपस्थित हैं। इसी से गोस्वामीजी केवल शिव आैर विरच के हर्षित हेने की बात कहते है। हमारा विचार है कि कबीर वैष्णव तो नही थे,पर्ंतु उनके ऊपर वैष्णव मत का व्यापक प्र्भाव अवश्य था।

(११)

अलख निरजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई। सुंनि असयूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अर्दिष्टि छिप्यी नही पेखा॥ बरन अवरन कथ्यी नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यी समाई।