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[कबीर
 

आप आप थ जानियै, है पर नाही सोइ।

कबीर सुपिनै केर धन ज्यूं, जागत हाथि न होइ।

शब्दार्थ-मति करि हीन=विवेक शुन्य। बधि=बुद्धि। दरवो=द्रबो, क्रुपा करदो। बाजी=बाजीगर,नट।कौतिग=तमाशा।

संदर्भ-पूर्व रमैणी।

भावार्थ रे अज्ञानी, तुम इस परम तत्व के स्वरूप को जानते हो नही, फिर उसका वर्णन किस प्रकार करते हो? मैने उसको निर्गुन समभ्का है और तुमने उसको सगुन के रूप मे जाना है। तुम तोह विवेकहीन हो। तुममे ऐसा कौनसा गुन जिससे तुम उस परमतत्व वास्तविक स्वरूप को जान सके हो?तुम तोह मायामोह और लोभ-लालच के आश्रित हो। हुम भी परमतत्व के साक्षात्कार के उपयुक्त गुणो (विवेक वैराग्य,षट सम्परत्ति इत्यादि) से तथा बोध से रहित है, फिर भी हुमको सद्गुण के कृपा से जैसे जो कुछ (थोडी बहुत) बुद्धि प्राप्त हुई है, उसी के आधार पर हुमने परमतत्व के स्वरूप पर विचार किया है। हुम जिव मात्र मतिहीन है। ह्मे भगवान के स्वरूप को समभ्कने की युक्ति नही आति है। ईश्वर से अनुग्रह की प्राथना करते हुए कबीर कह्ते है कि हे प्रभु, जब आप इस जन पर द्रवीभुत होगे,तभि वह आपके पूर्ण स्वरूप को प्राप्त हो सकेगा (मेरा मन आपके चरण कमलो मे हि अनुरक्त है।) तुम चाहे सगुण हो चाहे निर्गुण तुम्ही मुझे ज्ञान देने वाले हो। तुम जहां भी जिस प्रकार प्रकट होकर अपने आप को अभिज्ञ कर देते हो उसी के अनुसार जो जिस रूप में ही आपके साक्षात्कार के अनुभव को व्यक्त कर देता है उसके लिए तुम वैसे ही हो ह्रदय की तकरी बजती है उसमें नाथ उत्पन्न होता है परंतु इस पत्री को बजाने वाला कोई दूसरा ही है जादूगर नट नाचता है और दुनिया उसका तमाशा देखती है परंतु जो नाचने वाले को पहचानता है उसे कोई नहीं देख पाता हर व्यक्ति उसे अपनी वासना के अनुसार समझता और देखता है परंतु वह वास्तव में पैसा नहीं है कबीर कहते हैं कि व्यक्ति की वासना से समझे जाने वाले भगवान का स्वरूप तो स्वप्न के धन के समान है जो जागने पर हाथ नहीं लगता हैं।"

अलंका- (।) रूपक- चरन कमल।

(।।) उपमा - सुपिने केरि घन ज्यू ।

विशेष- (।) तत्था के सिद्धांत के आवरण में भगवान के अनिवार्य स्वरूप (आडंबन सगोचर) का प्रतिपादन है ।

(।।) गुड निर्गुण दाता कबीर एक सच्चे भक्त के रूप में हमारे सामने आते हैं।

जो जगदीश स्वती भली जो महेश बड़भाग। तुलसी चाहत जन्मी भरी राम चरण अनुराग।

(गोस्वामी तुलसीदास)