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ग्रंथावली]
[८७३
 

(३) जस अनभै कथिता तिनि तैसा |तुलना करें-

जाकी रही भावना जैसी |प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।

तथा- अमित रुप प्रगटे तेहि काला |जथाजोग मिले सबहि कृपाला ।

(गोस्वामी तुलसीदास)
 

(४)सगुण भक्तो जैसे दैन्य की मार्मिक अभिव्यक्ति है |

(१३)

जिनि यहु सुपिनां फुर करि जांनां , और सबै दुखयादि न आंनां । ग्यांन होन चेतै नहिं सूता , मै जाग्या बिष ह्रर भै भूता|| पारधी बांन रहै सर सांधें ,विषम बांन मारे विष बांधें|| काल अहेडी संझ सकारा, सावाज ससा सकल ससारा || दावानल अति जरें बिकारा ,माया मोह रोकि ले जारा || पवनसहाइ लोभ अति भइया ,जम चरचा चहुँदिसि फिरि गइया || जम के चर चहुँ दिसि फिरि लागे ,ह्ंस पखेरुवा अब कहा जाइबे || केस गहैं कर निस दिन रहई, जब धरि ऐंचे तब धरि चहई || कठिन पासि कछु चलै न उपाई जम दुबारि सीभ्ते सब जाई|| सोई त्रास सुनि रांम न गावै ,मृगत्रिष्णा भ्तूठी दिन धावै || मृत काल किनहूँ नही देखा ,दुख कौं सुख करि सबही लेखा || सुख करि मूल न चीन्हसि अभागी, चीन्है बिनां रहै दुख लागी || नींब काट रस नींब पियारा ,यूं बिष कूं अंमृत कहै ससारा || बिष अंमृत एकै करि सांनां,जिनि चीन्ह्या तिनही सुख मांनां || अछित राज दिन दिनहि सिराई,अमृत परहरि करि विष खाई।। जांनि अजांनि जिन्है बिष खावा, परे लहरि पुकारे धावा ।। विष के खांयें का गुं न होई, जा बेद न जाने परि सोई ।। मुरछि मुरछि जीव जरिहै आसा ,कांजीअलप बहु खीर बिनासा।। तिल सुख कारनि दुख अस मेरू चौरासी लख लीया फेरू।। अलप सुख दुख आहि अनता, मेरु चौरासी लख लीया फेरु।। दीपक जोति रहै इक सगा, नैन नेह मांनू परै पतगा।। सुख बिक्ष्त्राम किनहू नही पावा ,परहरि काल दिन आइ तुरावा।। लालच लागे जनम सिरावा,अति काल दिन आइ तुरावा।। जब लग है यह निज तन सोई,तब लग चेति न देखै कोई।। जब निज चलि करि किया पयांनां ,भयौ अकाज तब फिरि पछितांनां।।'

मृगत्रिष्णा दिन दिन ऐसी ,अवमोहि कछु न सौहा।

अनेक जतन करिये,टारिये,करम पासि नहीं जाइ।

शब्दार्थ-फुर =सत्य । विपह्रर=विषवर । भूता=भयभीत होकर भाग जाते है।सकारा=सवे।रेसावज =म्रगय अयोग्य पशु।पारवी =शिकारी।