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यदि कहा जाय कि कबीर इस दिशा में सिद्धहस्त थे। उनके व्यंग बड़े मार्मिक और प्रभावशाली होते हैं। उदाहरणार्थ यहाँ तीन साखियाँ दी जाती है—

(१)

पण्डित केरी पोथिया ज्यों तीतर का ज्ञान।
औरन सगुन बतावही आपन फन्द न जान॥

(२)

पण्डित और मसालयी दोनों सूझै नाहिं।
औरन को करै चाँदन आप अघेरे माहिं॥

(३)

नारी की झाईं परत अन्धा होत भुजंग।
कबीर तिनकी कौन गति नित ही नारी संग॥

संक्षेप में कबीर की अप्रस्तुत योजना सरल प्रभावशाली एवं कृत्रिमता विहीन है।

संसार की असारता, विषम रीति-नीति, स्वार्थीघता, निम्न प्रवृत्तियों और कटु अनुभवों ने कबीर में विचित्र तीखापन तथा आलोचनात्मक प्रवृत्ति समुत्पन्न कर दी थी। इसीलिये उनकी साखियों में अनुभूति की गहनता दिखाई देती है। संसार की गति देखकर उसमें प्रतिकार की ऐसी भावना जाग्रत हो उठी थी कि वे नीति विषयक उक्तियों के द्वारा जनता को जाग्रत करने के लिए अग्रसर हुए। कबीर के काव्य में नीति सम्बन्धी अनेक उक्तियाँ मिलती हैं। इनमें एक चतुर व्यक्ति की जैसी दूरदर्शिता एवं एक दूरदर्शी के सदृश सुझाव देने को अद्भुत क्षमता थी। उदाहरणार्थं यहाँ कतिपय साखियाँ उद्धृत की जाती है :—

(१)

देह धरे का दण्ड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञान से, मूरख भुगतै रोय॥

(२)

जुआ चोरी मुखबिरी, व्याज घूस, पर नार।
जो चाहे दीदार को एती वस्तु निबार॥

(३)

जग में बैरी कोउ नहीं, जो मन सीतल होय।
यह आपा तू डारि दे, दया करै सब कोय॥