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(५१)

 

(४)

मारग चलते जो गिरै, ताको नाहीं दोस।
कह कबीर बैठा रहै, ता सिर करड़े कोस॥

(५)

जो तो को फोटा बुवै, ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल॥

(६)

दुर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय।
बिना जीव की स्वांस से, लौह भस्म हो जाय॥

(७)

जो देखे सो कहै नहिं, कहं सो देखै नांहि।
सुनै सो समभावै नहीं, रसना दृग सरबन काहि॥

इन साखियों में गम्भीर ज्ञान और अनुभूति की अभिव्यंजना हुई है।

प्रस्तुत सक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि काव्य रचना कबीर का साध्य या लक्ष्य नहीं था फिर भी महान सन्देशों की अभिव्यक्ति के लिये उन्हें काव्य को माध्यम बनाना पड़ा। धर्म गुरु होने के साथ-साथ कबीर कवि भी थे। डॉ॰ हजारी प्रमाद द्विवेदी के शब्दों में "भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया—बन गया तो सीधे-सीधे नहीं तो दोहा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को ना ही कर सके। और हर जगह कहानी की रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी भाषा बहुत कम लेखकों में पाई जाती है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य रसिक काव्यानन्द का अस्वाद कराने वाला समझे, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है। फिर व्यंग करने में चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्दी नहीं जानते इस प्रकार यद्यपि कबीर ने कही काव्य लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की है तथापि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलके हुए रस से काव्य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ है।

हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न ही नहीं हुआ।—मस्ती, फक्कड़ स्वभाव और सब कुछ झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी साहित्य का अद्वितीय