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[कबीर की साखी
 

भावार्थ--हे ईश्वर भक्त !तू अपने को इतना विनीत बनाले जितना मार्ग मे पङा हुआ रोङा विनीत होता है । उसे चाहे जो ठोकर मारे सहता रह्ता है। और जब तुममे इस प्रकार कि सहन शक्ति आ जाएगी अहं का विनाश हो जायगा तब तुम्हे भगवत्प्राप्ति हो सकेगी।

शब्दार्थ--रोढा=मार्ग का पत्थर। वाटका=मार्ग का।

४२ चित कपटीभेष कौ ञ्प्रंग


कबीर तहाँ न जाइए ,जहाँ कपट का हेत ।

जालू कली कनीर की,तन रातौ मन सेत ॥१॥

सन्दर्भ--जहां पर कपटपूर्ण आचरण होता हो वहां नही जाना चहिए।

भावार्थ--कबीरदास जी कहते है कि वहाँ न जाना चाहिए जहाँ कपटपूर्ण व्यवहार होता हो। कपटी प्रेमी कन्नेर की कली के समान होता है । जिस प्रकार कन्नेर की कली का रगं ऊपर से लाल और भीतर से श्वेत होता है उसी प्रकार कपटी मित्र का व्यवहार भी ऊपर से प्रेमपूर्ण और ह्रदय से प्रेम रहित होता है ।

विशेष'----तुलना कीजिए-


परोक्षे कार्य हन्तारं ,प्रत्यक्षे प्रियवदिनम् ।

बर्जयेटताछ्शं मित्रे,विष कुम्भं पयोमुखम्॥

शब्दार्थ--हेत=प्रेम।

संसारी साषत भला,कंवारी कै भाइ।

दुराचारी वैश्नौ बुरा,हरिजन तहाँ न जाइ ॥२॥

सन्दर्भ--अच्छे आचरण वाला व्यकित ही श्रेष्ठ होता है।ईश्वर-भक्त कपटी आचरण वाले के यहाँ नही जाते।

भावार्थ--संसार मे लिप्त व्यकित यदि अच्छे अचरण वाला है तो वह दुराचारी वैष्णव से श्रेष्ठ है। वह व्यकित कुमारी कन्या के समान मन से निर्मल रह्ता है केवल बाह्य रुप से ही वह संसार से लिप्त रह्ता है।किन्तु इसके विपरीत दुराचारी वैष्णव सांसारिक कालुष्य से परिपूर्ग होता है। भगवान के भक्त वहाँ नही जाते है।