पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६७६

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जागि जागि नर काहे सोवै, सोइ सोइ कब जागैगा । जब घर भीतरिचोर पडेगे, तब अंचलि किसकै लागेगा ॥ कहै कवीर सुनहु रे सतौ, करि त्यौ जे क्छु करणां । लख चौरासी जोनि फिरौगे, विनां रांम की सरनां ॥ शब्दार्थ--जाति जाति =व्यर्थ जाते हुए । जीया=जीव । चरन=पाँव । कर=हाथ । घारे=क्षीण हो गये । आउ=आयु । संदर्भ-रे जीव को रामभक्ति की ओर प्रेरित करते है । भावर्थ-रे जीव! जीवन व्यर्थ जाते हुए देखकर भि यदि तुने भगवान का नाम नही लिया तो बाद मे तुम्हे पछताना पडेगा । संसार के धन्धो को करते-करते तेरे हाथ - पाव टुव्ंल हो गए है ,आयु घटती जा रहि है और शरीर क्षीण हो गया है । विषय- विकारो के प्रति तु सदैव अनुरक्त रहा ओर माया- मोह मे उलक्भा मे क्यो तो रहा है । आखिरकार इस अञान-रुपी निद्रा को तु कब छोडेगा? अर्थात यदि अब भी नही जागा, तो आस्तिर कब जागेगा ? जब इस शरीर रुपी पर मे यम-दुत रुपी घोर तेरे जीवन को रो जानेके लिए षुस आंयेगे,तब तु उस समय अपने रक्षायं किसकी शरण मे जायगा ? कबीर कहते है कि हे सवो।सुनो जो कुछ भगवान्नाम-स्मरण कर लो । राम की शरण मे गए बिना तुमको बार-बार जन्म लेकर चोरासी लाख योनियो मे निरन्तर भटकते रहना पडेगा । अल्ंकार--१ पुनरुक्तिप्रकाश-जागि ।

      २ रुपकातिशयोक्ति-घर चोर ।
      ३ नूडोक्ति-अंचलि किसके लावेगा ।

विशेष-'निर्वे'सचारी भाव की मार्मिक व्यजना है ।

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माया मोहि मोहि हित कोन्हां, तापे मेरी ग्यांन ध्यांन हरि लोन्हां ॥ संसार ऐमा सुपिन जैसा,जीव न सुपिन समांन । सांध करि नरि नाठि वाव्यौ,छाडि परम निधान ॥ नैन नेत्र पतंग हुलसे पसू न पेखै आगि ।