पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६८६

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[कबीर ६८२] 'आत्मा-बोध'का साधक-कर्म-निलिप्त रहना है।अत उस पर यमराज का कोई अधिकार नही रहता है।यमराज के अधिकार की सीमा मे आकर उसके निर्णय के अनुसार व्यवहार करने को विवश होना ही'यमराज की चुगी भरना' हैं।

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मीया तुम्ह सौ बोल्या बणि नहीं आवे। हम मसकीन खुदाई बदे,तुम्हारा जस मनि भावै॥ टके॥ अलह अवलि दीन का साहिब,जोर नहीं फुरमाया। मुरिसद पीर तुमहारै है को कहौ कहाँ थे आया॥ रोजा करे निवाज गुजारै,फलमे भिसत न होई। सतरि कावे इक दिल भीतरि,जे करि जानै कोइ॥ खसम पिछांनि तरस करि जिय मै,माल मनीं करि फीकी। आपा जानि सांई कू जांनै,तब है भिस्त सरीकी॥ माटी एक भप धरि नांनां,सब मै ब्रह्म समानां । कहे कबीर भिस्त छिटकाई,दोजग ही मन मानां॥ शब्दार्थ-मीया=मिया ,मालिक,सम्मानित जन का बोधक(श्रीमान की भांति)।मसकीन=मिस्कीन=दीन,अकिंचन। बदे-सेबक,दास। अवलि-सर्व प्रयम। फुरमाया=आज्ञा दी । मुरिसद=मुरिशद=सीधा मार्ग दिखाने वाला,गुरु । पीर=महात्मा,सिध्द । कलमा वह वाक्य जो मुसलमानो के धर्म-विशवास का मूल मन्य है-ता इलाह इतिलल्लाह,मुहम्म्द,रसूलिल्वाह। मिसत=बहिश्त,स्वर्ग । सतरि=सत्तर । काबे=मकूका की एक चौकोर इमारत जिसकी निव ज्ञाहीम की रखी हुई मानी जाती है । खसम=स्वामी । तरस=करुणा । गाल मनी=माल-मन,वैभव के प्रति आमत्त्कि। फीकी=कम,मद । सरीकी= सम्मिलित सिरकतदार= सामिल होने का अधिकारी। छिटकाई=आसत्कि छोड दो। दोजख==नरक । मन माना=मन को आश्वम्त कर लिय है। संदर्भ-कबीर इस पद मे विशेष रुप से मुसलमानो के बात्याचार का विरोध करके एकत्व का प्रतिपादन करते हैं।