पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७०९

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ग्रन्थवली] [ ७०२

            (iv)  छेकानुप्रास- राम रमत |
              विशेष- निर्वेद एव वैराग्य न्यज्ना है| 
                      (२७३)
     इब न रह्ं माटी के घर मे,
                इब मे जाइ रहू मिलि हरि मै|| टेक ||
                छिनहर घर अरु झि ह्रर टाटी,घन गरजत कंपै मेरी छाती ||
                दसवै द्वारि लागि गई तारी,दूरि गधन आवन भयौ भारी ||
                चहुँ दिसि बैठे चारि पहरिया, जागत मुसि गये मोर नगरिय ||
                कहै कबीर सुनहु रे लोई, भांनड. घड.ण सबारण सोई ||
                शब्दर्थ पाटि का घर=पचभौतिक जगत| छिनह्रर= जीर्ण= टूटा फूटा|
    भिरह्रर-भिरीवला, सुराखो वाला| द्सवाँ द्दार- व्रहारन्ध्र|घन-बादल,काल|तारी-त्राटिका | गवन-    अवन-जीवन-मरण|चारि-अहँकार चतुष्टय, मन,चित बुद्दि अहकार|मुसि गये-नष्ट-भ्रष्ट कर गये|भानण-भजन करने वाला|घड.ण-गढने वाला, बनाने वाला| सवरण-सवारने वाला अर्थात् पालन (रक्षा) करने वाला |
 संदर्भ-कबीरदास सासारिकता की निस्सारता का प्रतिपादन करते हुए प्रभु भक्ति का सकल्प करने हैं |
 
भावार्थ- अव मैं इस मिट्टी के घर अर्थात् मृण्मय शरीर के प्रति आसक्त नही रहूंगा|अब मैं भगवान मे तदाकार हो जाऊंगा|वासनाओ का भडार यह शरीर रूपी घर अत्यन्त जीणं है और इसके ऊपर जो वासनाओ का आवरण है,वह भी छोदो वाला है अर्थात् वामनाएँ भी मेरी रक्षा नही कर सकती है |काल रूपी बादल जब गरजते हैं अर्थात् जब मूभे मृत्यु का स्मरण आ जाता है, तब मेरा हॄदय कांपने लगता है | गुरु की कृपा से माटिका लग गई है| इससे व्रहारन्ध्र के व्दारा अब प्राण बाहर नही जा सकेंगे| इस कारण आवागमन का चक समाप्त हो गया है|इस ससार की स्थिति तो यह है कि मन,चत, बुद्धि एव अहकार रूपी चार पह्ररेदार चारो ओर से इस शरीर की रक्षा करते रहते है अथर्ति अन्त कारण चतुष्टय के वशीभूत मनुष्य किसी प्रकार मरना नही चाहता है,परंतु इन पहरेदारो के सजग रहते हुए भी काल रूपी चोर  इस शरीर रूपी नगर को लूट ले जाता है| कबीरदास कहते है कि हे लोई | सुनो मनुष्य सवंथा विवश है| सबका नाश, सूजन एवं पालन करने वाला केवल वही एक ईश्वर ही है|
         अलंकार -(।) रुपकातिशयोक्ति -माटी का घर,
                 (॥) घन चारि पहरिया,नगरिया।
                 (॥।)विरोधाभास-यहु दिसि'नगरिया । 
   विशेष-(।) निर्वेद सचारी भाव की व्यजना है।