पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७१८

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(२५१) ताथे मोहि नाचिबौ न आवै, ऊमर था ते सूभर भरिया, त्रिष्णा गागरि फूटी । हरि चिंतन मेरौ मदला भीनौ, भरम भोयन गयौ छूटी ।। ब्रहा अगनि मै जरी जु ममिता, पाषड अरू अभिमानां । काम चोलनां भया पुराना मोपे होइ न आना' । । जे बहु रूप किये ते कीये, अब बहु रूप न होई । थाकी सौंज़ संग के बिछुरे रांम नांम मसि धोई । । जे थे सचल अचल हुँ थाके, करते बाद बिबादं । कहै कबार मैं पूरा पाया, भया रांम परसांदं ।३ शब्दार्थ---ऊभर= खाली । सूभर== शुभ्र । मश्र्ला = मन रूपी बाजा । भोपन=वह आटा जो ध्वनि मे ठनक उत्पन्न करने के लिए मदल पर लगाया जाता है । सौज=साज, सज्जा, भोग-सामग्री । सग= विपय विकार रूपी साथी । मसि=पापकालिमा । परसाद = कृपा । संदर्भ-कबीरदास ज्ञान-दशा का वर्णन करते हैं । भावार्थ--कबीर कहते है कि मुझ पर भगवान की कृपा हो गई है। इससे अब मुभ से संसार के भाति-भाति के नाच नही नाचे जाते है । मेरा जो चिंत्त रूपी घडा भक्ति के जल से शुन्य था वह अब भक्ति के शुभ्र जल से भर गया है और मेरी तृषणा-रूपी गगरी फूट गई है । हरि के चिन्तन के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले आनद जल से मेरा मन रूपी मदला वाजा भीग गया है और वह मन्द पड गया है । भ्रम" रूपी भोयन (आटा) से मेरे मन रूपी मदला की मुक्ति हो गई है । ज्ञान की अग्नि में ममता, पाखण्ड और अभिमान जल गए हैं । कामवासना रूपी मेरा वस्त्र पुराना पड गया है । अब मेरे पास अन्य कोई वस्त्र नही है-अर्थात् में अब काम-वासना रहित हो गया हूँ । अब तक मैंने इच्छाओ के वशीभूत होकर जो अनेक जन्म धारण कर लिए सो कर लि ए परन्तु अव वे रूप में धरण नही करुगा । कर्म-भीग रूपी मेरी समस्त सामग्री समाप्त हो गई है और विपय-विकार रूपी साथियो से मेरा छुटकारा हो गया है तथा राम-नाम ने मेरे समस्त पूर् कलुपो को घो दिया है । जो वासनाएं अब तक चचल थीं और आपस में भगडती रहती थीं आर्थात् जिनके कारण मेरा मन चचल बना रहता था, वे अब उदात्तीक्रुत् हो गई है और निष्त्रिय् हौ गई हैं । कबीरदास कहते है कि मुझ पर राम की कृपा हो गई है और मुझे पूर्ण षामृ तत्त्व का साक्षात्कार प्राप्त हो गया है । अलंकार----- (1) सभग पद यमक--ऊभर सूभर । सचल अचल । (11) रूपक--त्रिण्णा गागर, भरम भायन । (111) ब्रहा अगिनि, काम चोलना । (क्या) रूपकातिशयोत्ति--मदला,सौज।