पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७५४

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७५०] [कबीर

   निस दिन तौहि व्यु नीद परत है,चितवत नांही ताहि|
   जम से बेरी सिर परि ठाढे,पर हथि कहाँ बिकाइ||
   झूठे परपंच मैं कहा लागौ,ऊठै नांही चालि|
   कहै कबीर कछू बिलम न कीजै, कौने देखी काल्हि||
  शब्दार्थ--वानि=आदत| भोमि=भूमि| बिडाणो=बिरानी, पराई|
रातों= अनुरक्त |लाहै=लाभ| काल्हि=कल का दिन|
  सन्दर्भ--कबीर जीवन और जगत की क्षण भगुरता के प्रति जीव को सावधान करते हैं|
  भावार्थ---रे परदेशी जीवात्मा, तू अपने प्रियतम को पहचान| तुम्हे क्या हो गया है|तुझको अक्ल (विवेक बुद्धि) क्यो  नहीं आती है| सासारिक विषयो मे लिप्त रहने की तेरी यह क्या आदत पड गई है| तू पुराई भूमि मे क्यो अनुरक्त्त हो गये हो | मुझे बाताओ तो सही कि इस प्रकार आसत्त्क होकर तुमको क्या लाभ हुआ है| सासारिक विपयो के सुख रूपी लाभ के लोभ मे तुमने अपने मूलधन रूपी सहज शुद्ध बुद्ध स्वरूप को भी नष्ट कर दिया है| यह बात मैं तुमको समझाकर कहता हूँ| तुम्हे रात दिन नीद क्यो आती है अर्थात् तुम सदैव अज्ञान के वशीभूत हुए परम तत्व को क्यो भूले रहते हो? तुम उस परम तत्व को जानने का प्रयत्न क्यों नही करते हो? तेरे सिर पर यमराज सदृश प्रबल शत्रु खडा हुआ है और तू अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर माया मे हाथों क्यो बिक गया है| हे जीव |तुम ससार के इस झूठे प्रपच मे क्यो फँसे हुए हो ? संसार से विमुख होकर भगवान की भक्ति करने के लिए क्यो नही चल पडते हो? कबीर कहते हैं कि ईश्वर भक्ति मे देर मत करो| इस कार्य को अभी और यही करो | कल किसने देखा है अर्थात् कल का क्या भरोसा है? 
       अलंकार -गूढोक्ति -सम्पूर्ण पद| 
       विशेष--१]प्रतीको का प्रयोग है--परदेशी,पीव,भोमि बिडाणी ,भूल |
       २]ससार की क्षण भगुरता का प्रतिपादन है|
       ३]शात रस दी व्यजना है|
       ४]परदेशी--मूल स्थान ब्रह्म से बिछुड कर जगत मे आने वाली जीवत्मा परदेशी है|
       ५]पराई--जीवात्मा का निवास स्थान तो ब्रह्म है| संसार तो माया का निवासस्थल है। इसी कारण वह जीवात्मा के लिए पराई भूमि है।
       ६]कहा कियो कहि मोहि-- इस कथन मे जीवत्मा की भारी भूल अभिव्यंजित है|
       ७]जम से बैरी--समभाव देखैं--
              जम करि गृँह नरहरि परयौ,महि घरि हरि चित लाउ|
              विषय व्रुधा अजहूँ तज्यौ नरहरि के गुन गाउ|  (बिहारी)