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ग्रन्थावली ] [७२६

      कूंच मुकांम जोग के घर मैं,कछू एक दिवस खटांनां।
      आसन राखि बिभूति साखि दे,फुनि ले सटी उडांनां ॥
      था जोगी की जुगति जु जांनै,सो सतगुर का चेल॥
      कहै कबीर उन गुर की क्रुपा थै,तिनि सब भरम पछेला॥
  शब्थर्थ--मिलान=मिताने की क्रिया |असवार=जीवात्मा रूपी सवार।
फुरमायस=अनुनय-विनय,प्रार्थना|करक=सेना,विकारो की सेना। गढ़=शरीर रूपी किला ।झेली झेला =झेलना ।बादशाह =साधक जीव ।कूंच= यात्रा |मुकाम =गन्तव्य स्थान,परम पद। खटाना =कस के काम किया ।।फुनि=फिर ।

पछेला=पीछे छोड़ दिया |मटी=मटिया,समाधिस्थ चेतना |

     सन्दर्भ-कबीर परमपद की प्राप्त का निरूपण करते है।
     भावार्थ-(माया -मोह मे फँसा हुआ) यह जीवन एक कोश का वीहड जंगल

है। इसमे न तो कोई परमात्मा से मिलने की क्रिया ही बताता है और् न कोई उससे मिल ही पाता है। जीवात्मा-रूपी यह घुडसवार अपनी जीवन-यात्रा मे अकेला ही है। वह संसार रूपी जंगल को पार करने के लिए अनेक साधनाओ मे भटकता है।(काम,क्रोध,लोभ,मोह एव मत्सर) विकार पूरी सेना एकत्र करके जीव को शरीर-रूपी गढ़ मे ही घेर लेते हैं ।गढ़ मे आबध्द जीव का धर्म ही अनेक कष्टो को झेलना

है। परन्तु साधक जीव रूप राजा अपनी साधना रुपी सेना का सचय करके

उस शरीर रुपी किले के घेरे को तोडकर बाहर आ जाता है अर्थात् देहाध्यास एव विषयासक्ति को छोड देता है। इस प्रकार वह जीवन के इस संघर्ष को खेल के रुप खेलकर अपने गन्तव्य परमपय की ओर प्रस्थान कर देता है। इस यात्रा मे वह कायायोग मे निवास करता है ओर कायायोग की साधना मे उसको कुछ समय तक कठिन श्रम करना पड़ता है। उसके बाद अपने आसन पर शरीर की मिट्टी को साक्षी रूप छोड़कर वह अपनी समाधिस्थ चेतना को लेकर चला जाता है। जो इस प्रकार के योग करने वाले साधक की साधना को समझता है,वही सदगुरु का सच्चा शिष्य है अर्थात् सदगुरु की कृपा प्राप्त करके ही यह साधना की जा सकती है। कबीर कहते हैं कि उसी गुरु की कृपा से योगी साधक सम्पूर्ण भ्रमो को पीछे छोड़ कर परम पद को प्राप्त करता है।

   अलंकार-(।)रूपकातिशयोक्ति-पूरा पद।
         (॥)छेकानुप्रास-मिलाननि मेला,असवार अकेला,झेली झेला 
                                     
           खेलि खेला। जोगी,जुगति।                      
  विशेष-(।)जीवन-सग्राम का सुन्द्रर रूपक है। इस पद मे 
          पारमाथिक जीवन क्रम का उल्लेख है।
     (॥)कायायोग साध न होकर साधन मात्र ही है।
     (॥।)गुरु की महिमा व्यजित है।